गोस्वामी तुलसीदास का पद |
।।श्री हरि:।। नम्र निवेदन इन्द्रदेवनारायण जी द्वारा अनुवादित इस कवितावली के अनुवाद को संशोधन करने में श्रीयुत मुनिलालजी एवं सम्मान्य पं. श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामी एम्. ए, शास्त्री, सम्पादक कल्याण-कल्पतरु ने जो परिश्रम किया है, उसके लिये हम उनके हृदय से कृतज्ञ हैं। ऊँ श्री सीतारामाभ्यां नम: कवितावली बालकाण्ड रेफ आत्मचिन्मय अकल, परब्रह्म पररूप। हरि-हर-अज-वन्दित-चरन, अगुण अनीह अनूप।।1।। बालकेलि दशरथ-अजिर, करत सो पिरत सभाय। पदनखेन्दु तेहि ध्यान धरि विरचत तिलक बनाय।।2।। अनिलसुवन पदपद्यरज, प्रेमसहित शिर धार। इन्द्रदेव टीका रचत, कवितावली उदार।।3।। बन्दौं श्रीतुलसीचरन नख, अनूप दुतिमाल। कवितावलि-टीका लसै कवितावलि-वरभाल।।4।। बालरूप की झाँकी अवधेस के द्वारे सकारे गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे। अवलोकि हौं तोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से।। तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से। सजनी ससि में समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे।। [एक सखी किसी दूसरी सखी से कहती है---] मैं सबेरे अयोध्यापति महाराज दशरथ के द्वार पर गयी थी। उसी समय महाराज पुत्र को गोद में लिये बाहर निकले। मैं तो उस सकल शोकहारी बालक को देखकर ठगी-सी रह गयी; उसे देखकर जो मोहित न हों, उन्हें धिक्कार है। उस बालक के अँजन-रंजित मनोहर नेत्र खंजन पक्षी के बच्चे के समान थे। हे सखि! वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो चन्द्रमा के भीतर दो समान रूपवाले नवीन नीलकमल खिले हुए हों।।1।। पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ। नवनील कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकैं नृपु गोद लिएँ।। अरबिन्दु सो आननु रूप मरंदु अनंदित लोचन-भृंग पिएँ। मनमो न बस्यौ अस बालकु जौं तुलसी जगमें फलु कौन जिएँ।। उस बालक के चरणों में घुँघुरू, कर-कमलों में पहुँची और गले में मनोहर मणियों की माला शोभायमान थी। उसके नवीन श्याम शरीर पर पीला झँगुला झलकता था । महाराज उसे गोद में लेकर पुलकित हो रहे थे। उसका मुख कमल के समान था, जिसके रूपमकरन्द का पान कर (देखने वालों के) नेत्ररूप भौंरे आनन्दमग्न हो जाते थे। श्रीगोसाईं जी कहते हैं- यदि किसी के मन में ऐसा बालक न बसा तो संसार में उसके जीवित रहने से क्या लाभ? ।।2।। तनकी दुति स्याम सरोरुह लोचन कंजकी मंजुलताईं हरैं। अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दूरि धरैं।। दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यौं किलकैं कल बाल-बिनोद करैं। अवधेसके बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं।। उनके शरीर की आभा नील कमल के समान है तथा नेत्र कमल की शोभा को हरते हैं। धूलि से भरे होने पर भी वे बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं और कामदेव की महती छबि को दूर कर देते हैं। उनके नन्हें-नन्हें दाँत बिजली की चमक के समान चमकते हैं और वे किलक-किलककर मनोहर बाललीलाएँ करते हैं। अयोध्यापति महाराज दशरथ के वे चारों बालक तुलसीदास के मनमन्दिर में सदैव विहार करें ।।3।। बाललीला कबहूँ ससि मागत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं। कबहूँ करताल मजाइकै नाचत मातु सबै मन मोद भरैं।। कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं। अवधेसके बालक चारि सदा तुलती-मन-मंदिर में बिहरैं।। कभी चन्द्रमा को माँगने का हठ करते हैं, कभी अपनी परछाहीं देखकर डरते हैं, कभी हाथ से ताली बजा-बजाकर नाचते हैं, जिससे सब माताओं के ह्रदय आनन्द से भर जाते हैं। कभी रूठकर हठपूर्वक कुछ कहते (माँगते हैं) और जिस वस्तु के लिये अड़ते हैं, उसे लेकर ही मानते हैं। अयोध्यापति महाराज दशरथ के वे चारों बालक तुलसीदास के मनमन्दिर में सदैव विहार करें । ||4|| ......... आगे पढ़ने के लिये कृपया निम्नलिखित साइट मे जाइये http://vrihad.com मिलनसागर |