दोनो जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के

दोनो जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के

वीराँ है मैकदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास है
तुम क्या गये के रूठ गये दिन बहार के

इक फ़ुरसत-ए-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज 'फ़ैज़'
मत पूछ वल-वले दिल-ए-ना-कर्दाकार के

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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का कविता
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फ़ैज़ अहमद फ़ैज़   उर्दु के एक प्रसिद्घ कवि थे ।
हमारा कौशिश यह है कि उनके कुछ कविता हम देवनागरी मे यहाँ
उपस्थित करें ।   
फ़ैज़ साहब का औपचारिक वेब-साइट -
www.faiz.com

1)      दोनो जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के      
2)      
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है      
3)      
ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया   
4)      
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है          
5)      
बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है   
        
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हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुश्नाम तो नहीं है ये इकराम ही तो है

करते हैं जिस पे ता'न, कोई जुर्म तो नहीं
शौक़-ए-फ़ुज़ूल-ओ-उल्फ़त-ए-नकाम ही तो है

दिल मुद्दैइ के हर्फ़-ए-मलामत से शाद है
अए जान-ए-जाँ ये हर्फ़ तेरा नाम ही तो है

दिल ना-उम्मीद तो नहीं, न-काम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है

दस्त-ए-फ़लक में, गर्दिश-ए-तक़दीर तो नहीं
दस्त-ए-फ़लक में, गर्दिश-ए-अय्याम ही तो है

आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यार-ए-ख़ुशख़साल सर-ए-बाम ही तो है

भीगी है रात 'फ़ैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्त-ए-सरोद दर्द का हंगाम ही तो है

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ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया

ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया
फिर आज किस ने सुख़न हम से ग़ायेबाना किया

ग़म-ए-जहाँ हो, रुख़-ए-यार हो के दस्त-ए-उदू
सलूक जिस से किया हमने आशिक़ाना किया

थे ख़ाक-ए-राह भी हम लोग क़हर-ए-तूफ़ाँ भी
सहा तो क्या न सहा और किया तो क्या न किया

ख़ुशा के आज हर इक मुद्दई के लब पर है
वो राज़ जिस ने हमें राँद-ए-ज़माना किया

वो हीलागर जो वफ़ाजू भी है जफ़ाख़ू भी
किया भी "फ़ैज़" तो किस बुत से दोस्ताना किया

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तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है

तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है
न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है

किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से तेरी सबब से है

हुआ है जब से दिल-ए-नासबूर बेक़ाबू
कलाम तुझसे नज़र को बड़ी अदब से है

अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब तेरे रन्ग-ए-लब से है

कहाँ गये शब-ए-फ़ुरक़त के जागनेवाले
सितारा-ए-सहर हम-कलाम कब से है

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बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है

बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है
मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है

हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है

करे न जग में अलाव तो शेर किस मक़सद
करे न शहर में जल-थल तो चश्म-ए-नम क्या है

अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना
न जाने आज की फ़ेहरिस्त में रक़म क्या है

सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो
बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है

लिहाज़ में कोई कुछ दूर साथ चलता है
वरना दहर में अब ख़िज़्र का भरम क्या है

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