बादल भिगो गए रातोंरात सलेटी छतों के कच्चे-पक्के घरों को प्रमुदित हैं गिरिजन
सोंधी भाप छोड़ रहे हैं सीढ़ियों की ज्यामितिक आकॄतियों में फैले हुए खेत दूर-दूर... दूर-दूर दीख रहे इधर-उधर डाँड़े के दोनों ओर दावानल-दग्ध वनांचल कहीं-कहीं डाल रहीं व्यवधान चीड़ों कि झुलसी पत्तियाँ मौसम का पहला वरदान इन तक भी पहुँचा है
जहरी खाल पर उतरा है मानसून भिगो गया है रातोंरात सबको इनको उनको हमको आपको मौसम का पहला वरदान पहुँचा है सभी तक... ******** . उपर
जनकवि नागार्जुन का कविता कोइ भि कविता पर क्लिक् करते हि वह आपके सामने आ जायगा
लाल-लाल गोला सूरज का शायद सुबह-सुबह दीख जाए पूरब में शायद कोहरे में न भी दीखे ! फ़िलहाल वो डूबता-डूबता दीख गया ! दिनान्त का आरक्त भास्कर जेठ के उजले पाख की नौवीं साँझ पसारेगी अपना आँचल अभी-अभी हिम्मत न होगी तमिस्रा को धरती पर झाँकने की ! सहमी-सहमी-सी वो प्रतीक्षा करेगी उधर, उस ओर खण्डहर की ओट में ! जी हाँ, परित्यक्त राजधानी के खण्डहरोंवाले उन उदास झुरमुटों में तमिस्रा करेगी इन्तज़ार दो बजे रात तक यानि तिथिक्रम के हिसाब से, आधी धुली चाँदनी तब तक खिली रहेगी फिर, तमिस्रा का नम्बर आएगा ! यानि अन्धकार का ! ******** . उपर
कालिदास! सच-सच बतलाना इन्दुमती के मृत्युशोक से अज रोया या तुम रोये थे? कालिदास! सच-सच बतलाना!
शिवजी की तीसरी आँख से निकली हुई महाज्वाला में घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम कामदेव जब भस्म हो गया रति का क्रंदन सुन आँसू से तुमने ही तो दृग धोये थे कालिदास! सच-सच बतलाना रति रोयी या तुम रोये थे?
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका प्रथम दिवस आषाढ़ मास का देख गगन में श्याम घन-घटा विधुर यक्ष का मन जब उचटा खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर चित्रकूट से सुभग शिखर पर उस बेचारे ने भेजा था जिनके ही द्वारा संदेशा उन पुष्करावर्त मेघों का साथी बनकर उड़ने वाले कालिदास! सच-सच बतलाना पर पीड़ा से पूर-पूर हो थक-थककर औ' चूर-चूर हो अमल-धवल गिरि के शिखरों पर प्रियवर! तुम कब तक सोये थे? रोया यक्ष कि तुम रोये थे!
अभी कल तक गालियॉं देती तुम्हें हताश खेतिहर, अभी कल तक धूल में नहाते थे गोरैयों के झुंड, अभी कल तक पथराई हुई थी धनहर खेतों की माटी, अभी कल तक धरती की कोख में दुबके पेड़ थे मेंढक, अभी कल तक उदास और बद रंग था आसमान!
और आज ऊपर ही ऊपर तन गये हैं तुम्हारे तंबू, और आज छमका रही है पावस रानी बूँदा-बूँदियों की अपनी पायल, और आज चालू हो गई है झींगुरो की शहनाई अविराम, और आज ज़ोरों से कूक पड़े नाचते थिरकते मोर, और आज आ गई वापस जान दूब की झुलसी शिरायों के अंदर, और आज बिदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म समेट कर अपने लाव-लश्कर। ******** . उपर
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त ।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद ।
अग्निबीज तुमने बोए थे रमे जूझते, युग के बहु आयामी सपनों में, प्रिय खोए थे! अग्निबीज तुमने बोए थे
तब के वे साथी क्या से क्या हो गए कर दिया क्या से क्या तो, देख–देख प्रतिरूपी छवियाँ पहले खीझे फिर रोए थे अग्निबीज तुमने बोए थे
ऋषि की दृष्टि मिली थी सचमुच भारतीय आत्मा थे तुम तो लाभ–लोभ की हीन भावना पास न फटकी अपनों की यह ओछी नीयत प्रतिपल ही काँटों–सी खटकी स्वेच्छावश तुम शरशैया पर लेट गए थे लेकिन उन पतले होठों पर मुस्कानों की आभा भी तो कभी–कभी खेला करती थी! यही फूल की अभिलाषा थी निश्चय¸ तुम तो इस 'जन–युग' के बोधिसत्व थे; पारमिता में त्याग तत्व थे।
'स्वेत-स्याम-रतनार' अंखिया निहार के सिण्डकेटी प्रभुओं की पग-धूर झार के लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के खिले हैं दांत ज्यों दाने अनार के आये दिन बहार के !
बन गया निजी काम- दिलाएंगे और अन्न दान के, उधार के टल गये संकट यू.पी.-बिहार के लौटे टिकट मार के आये दिन बहार के !
सपने दिखे कार के गगन-विहार के सीखेंगे नखरे, समुन्दर-पार के लौटे टिकट मार के आये दिन बहार के !
यह कैसे होगा ? यह क्योंकर होगा ? नई नई सृष्टि रचने को तत्पर कोटि-कोटि कर-चरण देते रहें अहरह स्निग्ध इंगित और मैं अलस अकर्मा पड़ा रहूँ चुपचाप | यह कैसे होगा ? यह क्योंकर होगा ? अधिकाधिक योग-क्षेम अधिकाधिक शुभ-लाभ अधिकाधिक चेतना कर लूँ संचित लघुतम परिधि में ! असीम रहे व्यक्तिगत हर्ष-उत्कर्ष ! अकेले ही सकुशल जी लूँ सौ वर्ष ! यह कैसे होगा ? यह क्योंकर होगा ? यथासमय मुकुलित हों यथासमय पुष्पित हों यथासमय फल दें आम और जामन, लीची ओर कटहल | तो फिर मैं ही बाँझ रहूँ ! मैं ही न दे पाऊँ --- परिणत प्रज्ञा का अपना फल ! यह कैसे होगा ? यह क्योंकर होगा ?
सलिल को सुधा बनाएँ तटबंध धरा को मुदित करें नियंत्रित नदियाँ तो फिर मैं ही रहूँ निबध ! मैं ही रहूँ अनियंत्रित ! यह कैसे होगा ? यह क्योंकर होगा ? भौतिक भोगमात्र सुलभ हो भूरि-भूरि, विवेक हो कुंठित ! तन हो कनकाभ, मन हो तिमिरावृत ! कलमपत्री नेत्र हों बाहर बाहर, भीतर की आँखे निपट निमिलित ! यह कैसे होगा ? यह क्योंकर होगा ?
वे लोहा पीट रहें हैं तुम मन को पीट रहे हो वे पत्तर जोड़े रहे हैं तुम सपने जोड़ रहे हो उनकी घुटन ठहाकों में चलती है और तुम्हारी घुटन ? उनीं दो घड़ियों में चुरती है |
वे हुलसित हैं अपनी ही फसलों में डुब गए हैं तुम हुलसित हो चितकबरी चाँदनियों में खोये हो उनकी दुख है नये आम की मंजरियों को पाला मार गया है तुमको दुख है काव्य-संकलन दीपक चाट गए हैं |