अटल बिहारी वाजपेयी का कविता
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आओ फिर से दिया जलाएँ

भरी दुपहरी मेँ आँधियारा,
सूरज परछाईँ से हारा,
अन्तरतम का नेह निचोड़ेँ, बुझी हुई बाती सुलगाएँ |
आओ फिर से दिया जलाएँ |

हम पड़ाओ को समझे मंजिल,
लक्ष्य हुआ आँखोँ से ओझल,
बर्तमान के मोहजाल मेँ आने वाला कल न भुलाएँ |
आओ फिर से दिया जलाएँ |

आहुति बाकी, यज्ञ अधूरा,
अपनोँ के विघ्नोँ ने घेरा,
अन्तिम जय का बज्र बनाने, नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ |
आओ फिर से दिया जलाएँ ||

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हरी हरी दूब पर

हरी हकी दूब पर
ओस की बूँदे
अभी थी,
अभी नहीं हैँ |
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थी,
कहीँ नहीं हैं |

क्काँयर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बुँदोँ को ढुँढ़ुँ ?

सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाइ है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्योँ न मैं क्षण क्षण को जिऊँ ?
कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ ?

सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूँद
हर मौसम मेँ नहीँ मिलेगी |

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कौरव कौन, कौन पाण्डव

कौरव कौन
कौन पाण्डव,
टेढ़ा सवाल है |
दोनोँ ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है |
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है |
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है |
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है |

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दूध में दरार पड़ गई

खून क्यों सफेद हो गया ?
भेद में अभेद खो गया |
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई |
दूध में दरार पड़ गई |

खेतोँ में बारूदी गंध,
टुट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्याथित सी बितस्ता है |  
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई |

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे है गैर,
खुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता |
बात बनाएँ, बिगड़ गई |
दूध में दरार पड़ गई |

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   क्षमा याचना

क्षमा करो बापू ! तुम हमको,
        बचन भंग के हम अपराधी,
राजघाट को किया अपावन,
        मंजिल भूले, यात्रा आधी |

जयप्रकाश जी ! रखो भरोसा,
        टुटे सपनों को जोड़ेंगे |
चिताभस्म की चिंगारी से,
        अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे |

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मनाली मत जइयो

मनाली मत जइयो, गोरी
राजा के राज में |

जइयो तो जइयो,
उड़िके मत जइयो,
अधर में लटकीहौ,
वायुदूत के जहाज में |

जइयो तो जइयो,
सन्देसा न पइयो,
टेलिफोन बिगड़े हैं,
मिर्धा महाराज में |

जइयो तो जइयो,
मशाल ले के जइयो,
बिजुरी भइ बैरिन
अँधेरिया रात में |

जइयो तो जइयो,
त्रिशूल बाँध जइयो,
मिलेंगे खालिस्तानी,
राजीव के राज में |

मनाली तो जइहो |
सुरग सुख पइहों |
दुख नीको लागे, मोहे
राजा के राज में |

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राजा - वीरभद्र सिंह
मिर्धा - राम निवास मिर्धा
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जीवन की ढलने लगी साँझ

जीवन की ढलने लगी साँझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी साँझ |

बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ है बाँझ |

सपनोँ में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पाँव और झिझक रही झाँझ |
जीवन की ढलने लगी साँझ |

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एक बरस बीत गया

एक बरस बीत गया

         झुलसाता जेठ मास
         शरद चाँदनी उदास
         सिसकी भरते सावन का
         अन्तर्घट रीत गया
         एक बरस बीत गया। ।

सीकचोँ में सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अंबर तक
गूँज मुक्ति गीत गाया,
     
          एक बरस बीत गया ।
          पथ निहारते नयन
          गिनते दिन, पल, छिन
          लौट कभी आएगा
          मन का जो मीत गया,

एक बरस बीत गया  ।

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पुनः चमकेगा दिनकर

आजादी का दिन मना,
       नई गुलामी बीच ;
सूखी धरती, सूना अंबर,
       मन-आंगन में कीच ;
मन-आंगम में कीच,
       कमल सारे मुरझाए ;
एक-एक कर बुझे दीप,
       आँधियारे छाए ;
कह कैदी कबिराय
       न अपना छोटा जी कर ;
चीर निशा का वक्ष
       पुनः चमकेगा दिनकर  ।

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अंतरद्वंद्व

क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर ?
शव का अर्चन,
शिव का वर्जन,
कहूँ विसंगति या रूपांतर ?
        
वैभव दूना,
अंतर सूना,
कहूँ प्रगति या प्रस्थलांतर ?

मात्र संक्रमण ?
या नव सर्जन ?
स्वस्ति कहूँ या रहूँ निरुत्तर ?

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हिंदू तन-मन

हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!

मै शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार–क्षार।
डमरू की वह प्रलय–ध्वनि हूं, जिसमें नचता भीषण संहार।
रणचंडी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास।
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुआंधार।
फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती में आग लगा दूं मैं।
यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड़ चेतन तो कैसा विस्मय?
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!

मैं अखिल विश्व का गुरु महान, देता विद्या का अमरदान।
मैंने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्मज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर्णभ में घहर–घहर, सागर के जल में छहर–छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सोराभ्मय।
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!

मैंने छाती का लहू पिला, पाले विदेश के क्षुधित लाल।
मुझको मानव में भेद नहीं, मेरा अन्तस्थल वर विशाल।
जग से ठुकराए लोगों को लो मेरे घर का खुला द्वार।
अपना सब कुछ हूं लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार।
मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट।
यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरीट तो क्या विस्मय?
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!

होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम?
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल–राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिंदू करने घर–घर में नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी?
भूभाग नहीं, शत–शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!

मैं एक बिंदु परिपूर्ण सिंधु है यह मेरा हिंदू समाज।
मेरा इसका संबंध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैंने पाया तन–मन, इससे मैंने पाया जीवन।
मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दूं सब कुछ इसके अर्पण।
मैं तो समाज की थाति हूं, मैं तो समाज का हूं सेवक।
मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय।
हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय!


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