अटल बिहारी वाजपेयी का कविता कोइ भि कविता पर क्लिक् करते हि वह आपके सामने आ जायगा। |
दूध में दरार पड़ गई खून क्यों सफेद हो गया ? भेद में अभेद खो गया | बँट गये शहीद, गीत कट गए, कलेजे में कटार दड़ गई | दूध में दरार पड़ गई | खेतोँ में बारूदी गंध, टुट गये नानक के छंद सतलुज सहम उठी, व्याथित सी बितस्ता है | वसंत से बहार झड़ गई दूध में दरार पड़ गई | अपनी ही छाया से बैर, गले लगने लगे है गैर, खुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता | बात बनाएँ, बिगड़ गई | दूध में दरार पड़ गई | ******** |
जीवन की ढलने लगी साँझ जीवन की ढलने लगी साँझ उमर घट गई डगर कट गई जीवन की ढलने लगी साँझ | बदले हैं अर्थ शब्द हुए व्यर्थ शान्ति बिना खुशियाँ है बाँझ | सपनोँ में मीत बिखरा संगीत ठिठक रहे पाँव और झिझक रही झाँझ | जीवन की ढलने लगी साँझ | ******** |
अंतरद्वंद्व क्या सच है, क्या शिव, क्या सुंदर ? शव का अर्चन, शिव का वर्जन, कहूँ विसंगति या रूपांतर ? वैभव दूना, अंतर सूना, कहूँ प्रगति या प्रस्थलांतर ? मात्र संक्रमण ? या नव सर्जन ? स्वस्ति कहूँ या रहूँ निरुत्तर ? ******** |
हिंदू तन-मन हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय! मै शंकर का वह क्रोधानल कर सकता जगती क्षार–क्षार। डमरू की वह प्रलय–ध्वनि हूं, जिसमें नचता भीषण संहार। रणचंडी की अतृप्त प्यास, मैं दुर्गा का उन्मत्त हास। मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुआंधार। फिर अंतरतम की ज्वाला से जगती में आग लगा दूं मैं। यदि धधक उठे जल, थल, अंबर, जड़ चेतन तो कैसा विस्मय? हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय! मैं अखिल विश्व का गुरु महान, देता विद्या का अमरदान। मैंने दिखलाया मुक्तिमार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्मज्ञान। मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर। मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर? मेरा स्वर्णभ में घहर–घहर, सागर के जल में छहर–छहर। इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सोराभ्मय। हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय! मैंने छाती का लहू पिला, पाले विदेश के क्षुधित लाल। मुझको मानव में भेद नहीं, मेरा अन्तस्थल वर विशाल। जग से ठुकराए लोगों को लो मेरे घर का खुला द्वार। अपना सब कुछ हूं लुटा चुका, फिर भी अक्षय है धनागार। मेरा हीरा पाकर ज्योतित परकीयों का वह राजमुकुट। यदि इन चरणों पर झुक जाए कल वह किरीट तो क्या विस्मय? हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय! होकर स्वतंत्र मैंने कब चाहा है कर लूं सब को गुलाम? मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम। गोपाल–राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किया? कब दुनिया को हिंदू करने घर–घर में नरसंहार किया? कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी? भूभाग नहीं, शत–शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय। हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय! मैं एक बिंदु परिपूर्ण सिंधु है यह मेरा हिंदू समाज। मेरा इसका संबंध अमर, मैं व्यक्ति और यह है समाज। इससे मैंने पाया तन–मन, इससे मैंने पाया जीवन। मेरा तो बस कर्तव्य यही, कर दूं सब कुछ इसके अर्पण। मैं तो समाज की थाति हूं, मैं तो समाज का हूं सेवक। मैं तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय। हिंदू तन–मन, हिंदू जीवन, रग–रग हिंदू मेरा परिचय! ******** |
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