बहादुर शाह ज़फ़र का समाधि-लेख
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दायर में
किस की बानी है आलम-ए-ना-पायेदर में
कह दो इन हज़रतों से कहीं और जा बसें
इतनि जगह कहां है दिल-इ-दाघदार में
बाबुल को बाघबान से न सैय्यद से गिला
किसमत में कैद लिखी थी मौसम-ए-बहार में
उम्र-इ दराज़ मांग के लाये थे चार दिन
दो आर्ज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
है कितना बद् नसीब ज़फ़र दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ये यार में
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बहादुर शाह ज़फ़र का कविता
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आखरी मुघल सम्राट
उर्दु के एक बहुत ही प्रसिद्घ कवि माने
जाते थे । हमारा कोशिश यह है कि उनके कुछ कविता हम देवनागरी
मे यहाँ उपस्थित करें ।
1)
बहादुर शाह
ज़फ़
र का समाधि-लेख
2)
यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी मैं न था
3)
या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता
4)
वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया
5)
न किसी कि आँख का नूर हूँ न किसि के दिल का क़रार हूँ
6)
किज्ये न दस में बैठ कर आपस की बात चीत
7)
सुबह रो रो के शाम होती है
8)
बात करनी मुझे मुशकिल कभी ऐसी तो न थी
9)
हम तो चलते हैं लो खुदा हाफ़िज़
10)
बीच में पर्दा दुई का था जो हयाल उठ गया
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यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी मैं न था
यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी मैं न था
लयाक-ए-पा-बोस-ए-जान क्या हेना थी मैं न था
हाथ क्यों बंधे मेरे चला अगर चोरी हुआ
ये सरापा शोख़ी-ए-रंग-ए-हेना थी मैं न था
मैं ने पुछा क्या हुआ वो आप का हुस्न-ओ-शबाब
हँस के बोला वो सनम शान-ए-ख़ुदा थी मैं न था
मैं सिसकता रह गया और मर गये फ़रहाद-ओ-क़्वाइस
क्या युंहीं दोनों के हिस्से में क़जा थी मैं न था
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उपर
या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता
या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता
या मेरा ताज़ गदाया न बनाया होता
खाकसरी के लिये गरचे बनाया था मुझे
काश ख़ाक-ए-दार-ए-जनान न बनाया होता
नशा-ए-इश्क का गर ज़र्फ़ दिया था मुझ को
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता
अपना दिवाना बनाया मुझे होता तूनें
क्यों खिर्दमंद बनाया न बनाया होता
शोला-ए-हुस्न चमन में न दिखाया उस नें
वरना बुलबुल को भी परवाना बनाया होता
रोज़-ए-मामुरा-ए-दुनिया में ख़राबी है ज़फ़र
ऐसी बस्ती से तो वीराना बनाया होता
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उपर
वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया
वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया
अगरचे मस्त था मैं पार मुझे हिजाब आया
इधर ख़याल मेरे दिल में ज़ल्फ़ का गुज़रा
उधर वह ख़ता हुआ दिल में पेच-ओ-ताब आया
ख़याल किस का समाया है दीदा-ओ-दिल में
न दिल को चैन मुझे और न शाब को ख़्वाब आया
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उपर
न किसी कि आँख का नूर हूँ न किसि के दिल का क़रार हूँ
न किसी कि आँख का नूर हूँ न किसि के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सका मैं वो एक मुश्त-ए-गुबार हूँ
न तो मैं किसी का हबीब हूँ न तो मैं किसी की रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दायर हूँ
मेरा रंग-रूप बीगड़ गया मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन फ़िज़ान में उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ
पाये फ़तेहा कोइ आए क्यों कोइ चार फूल चढ़ाये क्यों
कोइ आके शम्मा जलाये क्यों मैं वो बाकसी का मज़ार हूँ
मैं नहीं हूँ नघ़मा-ए-जानफ़िशान मुझे सुनके कोइ करेगा क्या
मैं बड़े बारोग की हूँ सदा मैं बड़ी दुःख की पुकार हूँ
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उपर
किज्ये न दस में बैठ कर आपस की बात चीत
किज्ये न दस में बैठ कर आपस की बात चीत
पहुचेंगी दस हज़ार जगह दस की बात चीत
कब तक रहें खामोश के ज़ाहीर से आप की
हम नें बहुत सुनी कास-ओ-नकास की बात चीत
मुद्दत के बाद हज़-ए-नासेह् करम किया
फ़र्माये मिज़ाज-ए-मुकद्दस की बात चीत
पर तर्क-ए-इश्क के लिये इज़हार कुछ न हो
मैं क्या करूं नहीं ये मेरे बस की बात चीत
क्या याद आ गया है "ज़फ़र" पंजा-ए-निगार
कुछ हो राही है बंद-ओ-मुखम्मस की बात चीत
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उपर
सुबह रो रो के शाम होती है
सुबह रो रो के शाम होती है
शव तड़प कर तमाम होती है
सामने चश्म-ए-मस्त के साकी
किस को परवाह-ए-जाम होती है
कोइ गुंचा खिलाके बुलबुल को
बेकली ज़र-ए-दम होती है
हम जो कहते हैं कुछ इशारों से
ये कहता ला-कलाम होती है
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उपर
बात करनी मुझे मुशकिल कभी ऐसी तो न थी
बात करनी मुझे मुशकिल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
ले गया चिन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
चश्म-ए-क़ातील मेरी दुशमन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई क़ातील कभी ऐसी तो न थी
उन की आँखों ने ख़ुदा जानें किया क्या जादू
के तबियत मेरी मैल कभी ऐसी तो न थी
अक्स-ए-रुख़-ए-यार ने किस से है तुझे चमकाया
तब तुझ में माह-ए-क़ामील कभी ऐसी तो न थी
क्या शबाब तु जो बिगड़ता है "ज़फ़र" से हर बार
खु तेरी हूर-ए-शमैल कभी ऐसी तो न थी
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उपर
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हम तो चलते हैं लो खुदा हाफ़िज़
हम तो चलते हैं लो खुदा हाफ़िज़
बुतकदा का बातों ख़ुदा हाफ़िज़
कर चुके तुम नसीहतें हम को
जाओ बस नसेहो खुदा हाफ़िज़
आज कुछ और तरह पर उनकी
सुनते हैं गुफ़्तगू खुदा हाफ़िज़
बर यही है हमेशा ज़ख़्म पे ज़ख़्म
दिल का चरागारों खुदा हाफ़िज़
आज है कुछ ज़्यादा बेताबी
दिल-ए-बेताब को खुदा हाफ़िज़
क्यों हिफ़ाज़त हम और की धूँडें
हर नफस जब की है खुदा हाफ़िज़
चाहे रुकसत हो राह-ए-इश्क में अक़्ल
ऐ "ज़फ़र" जाने दो खुदा हाफ़िज़
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उपर
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बीच में पर्दा दुई का था जो हयाल उठ गया
बीच में पर्दा दुई का था जो हयाल उठ गया
ऐसा कुछ देखा के दुनिया से मेरा दिल उठ गया
शामा ने रो रो के काटी रात सूली पर तमाम
शाब को जो महफ़िल से तेरी आई ज़ेब-ए-महफ़िल उठ गया
मेरी आँखों में समाया उस का ऐसा नूर-ए-हक़
शौक़-ए-नज़ारा ऐ बदर-ए-कामील उठ गया
ऐ ज़फ़र क्या पुछता है बेगुनाह-ओ-बर-गुनाह
उठ गया अब जिधर को वास्ते क़ातील उठ गया
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उपर
मिलनसागर