सितारों से उलझता जा रहा हूँ

सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ

तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ
जहाँ को भी समझा रहा हूँ

यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ

अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ

हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर कयामत ढा रहा हूँ

ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत
तेरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ

भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ

तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सूलझा रहा हूँ

मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ

ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
"फ़िराक़" अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ

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फ़िराक़ गोरखपुरी की कविता
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फ़िराक़ गोरखपुरी   उर्दु के एक बहुत ही प्रसिद्घ कवि माने जाते थे ।
हमारा कौशिश यह है कि उनके कुछ कविता हम देवनागरी मे यहाँ
उपस्थित करें ।

1)      
सितारों से उलझता जा रहा हूँ      
2)      
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम  
3)      
निगाहें नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या-क्या   
4)      
रस में डूब हुआ लहराता बदन क्या कहना   
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कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेग़ाना समझ बैठे थे हम

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबान नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम

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निगाहें नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या-क्या ।

निगाहें नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या-क्या ।
हिजाब अहले मुहब्बत को आए हैं क्या-क्या ।।

जहाँ में थी बस इक अफ़वाह तेरे जलवों की,
चराग़े दैरो-हरम झिलमिलाये है क्या-क्या ।

कहीं चराग़, कहीं गुल, कहीं दिल बरबाद,
ख़ेरामें नाज़ ने कितने उठाए हैं क्या-क्या ।

पयामें हुस्न, पयामे जुनुं, पयामें फ़ना,
तेरी निगाह ने फसाने सुनाए हैं क्या-क्या ।

‘फिराक़’ राहे वफ़ा में सबक़ रवी तेरी,
बड़े बड़ों के कदम डगमगाए हैं क्या-क्या ।

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रस में डूब हुआ लहराता बदन क्या कहना

रस में डूब हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुबह-ए-चमन क्या कहना

बाग-ए-जन्नत में घटा जैसे बरस के खुल जाये
सोंधी सोंधी तेरी ख़ुश्बु-ए-बदन क्या कहना

जैसे लहराये कोई शोला कमर की ये लचक
सर ब-सर आतिश-ए-सय्याल बदन क्या कहना

क़ामत-ए-नाज़ लचकती हुई इक क़ौस-ओ-ए-क़ज़ाह
ज़ुल्फ़-ए-शब रंग का छाया हुआ गहन क्या कहना

जिस तरह जल्वा-ए-फ़िर्दौस हवाओं से छीने
पैराहन में तेरे रंगीनी-ए-तन क्या कहना

जल्वा-ओ-पर्दा का ये रंग दम-ए-नज़ारा
जिस तरह अध-खुले घुँघट में दुल्हन क्या कहना

जगमगाहट ये जबीं की है के पौ फटती है
मुस्कुराहट है तेरी सुबह-ए-चमन क्या कहना

ज़ुल्फ़-ए-शबगूँ की चमक पैकर-ए-सीमें की दमक
दीप माला है सर-ए-गंग-ओ-जमन क्या कहना

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