ऐसा लगता हैं, जो ना हुआ होने को हैं ऐसा लगता हैं, अब दिल मेरा खोने को हैं वर्ना दिल क्यो धडकता, सांसे क्यो रुकती, नींदे मेरी क्यो उड जाती कोई चेहरा निगाहों पे छाने लगा कोई अब रोज ख्वाबों में आने लगा आई रुत जो नई, जागे अरमां कई मौसम कोई गझल जैसे गाने लगा ऐसा लगता हैं, जैसे नशा होने को हैं ऐसा लगता हैं, होश मेरा खोने को हैं वर्ना दिल क्यो धडकता ..... महकी, महकी फिजा ने ली अंगडाईयाँ नीली, नीली हैं बादल की परछाईयाँ ठंडी, ठंडी हवा, लाई राग नया गूँजी, गूँजी सी हैं जैसे शहनाईयाँ ऐसा लगता हैं, कोई मेरा होने को हैं ऐसा लगता हैं, हर फासला खोने को हैं वर्ना दिल क्यो धडकता
प्यार मुझसे जो किया तुमने तो क्या पाओगी मेरे हालात की आंधी में बिखर जाओगी
रंज और दर्द की बस्ती का बाशिन्दा हूँ ये तो बस मैं हूँ के इस हाल में भी जिन्दा हूँ ख्वाब क्यूं देखूं वोह कल जिस पे मैं शर्मिन्दा हूँ मैं जो शर्मिन्दा हुआ तुम भी तो शरमाओगी
क्यों मेरे साथ कोइ और परेशान रहे मेरी दुनिया जो है वीरान तो वीरान रहे जिन्दगी का ये सफर तुम पे तो आसान रहे हम सफर मुझको बनाओगी तो पछताओगी
एक मैं क्या अभी आएंगे दिवाने कितने अभी गूजेँगे मुहब्बत के तराने कितने जिन्दगी तुमको सुनाएगी फसाने कितने क्यू समझती हो मुझे भूल नहीं पाओगी
कुछ न कहो कुछ भी न कहो क्या कहना है क्या सुनना है मुझको पता है तुमको पता है समय का ये पल थम सा गया है और इस पल में कोई नहीं है
बस एक मैं हूँ बस एक तुम हो कुछ न कहो कुछ भी न कहो
कितने गहरे हलके शाम के रंग है छलके परबत से यूं उकरे बादल जैसे आँचल ढलके और इस पल में कोई नहीं है बस एक मैं हूँ बस एक तुम हो कुछ न कहो कुछ भी न कहो
सुलगी सुलगी सांसें - बहकी बहकी धड़कन महके महके शाम के साए पिघले पिघले तन मन और इस पल में कोई नहीं है बस एक मैं हूँ बस एक तुम हो कुछ न कहो कुछ भी न कहो
मुझको पता है तुमको पता है समय का ये पल थम सा गया है और इस पल में कोई नहीं है बस एक मैं हूँ बस एक तुम हो
कुछ न कहो कुछ भी न कहो क्या कहना है क्या सुनना है मुझको पता है तुमको पता है समय का ये पल थम सा गया है और इस पल में कोई नहीं है बस एक मैं हूँ बस एक तुम हो
खोई सब पहचानें खोए सारे अपने समय की छलनी से गिर गिर के खोए सारे सपने कुछ न कहो कुछ भी न कहो
हमने जब देखे थे सुन्दर कोमल सपने फूल सितारे परबत बादल सब लगते थे अपने और इस पल में कोई नहीं है बस एक मैं हूँ बस एक तुम हो कुछ न कहो कुछ भी न कहो
शाम होने को है लाल सूरज समंदर में खोने को है और उसके परे कुछ परिन्दे क़तारें बनाए उन्हीं जंगलों को चले जिनके पेड़ों की शाख़ों पे है घोंसले ये परिन्दे वहीं लौट कर जाएँगे और सो जाएँगे हम ही हैरान हैं इस मकानों के जंगल में अपना कहीं भी ठिकाना नहीं शाम होने को है हम कहाँ जाएँगे।
हाँ गुनहगार हूँ मैं जो सज़ा चाहे अदालत देदे आपके सामने सरकार हूँ मैं
मुझको इकरार कि मैंने इक दिन ख़ुद को नीलाम किया और राज़ी-बरज़ा सरेबाज़ार, सरेआम किया मुझको कीमत भी बहुत ख़ूब मिली थी लेकिन मैंने सौदे में ख़यानत कर ली यानी कुछ ख़्वाब बचाकर रक्खे मैंने सोचा था किसे फ़ुरसत है जो मिरी रूह, मिरे दिल की तलाशी लेगा मैंने सोचा था किसे होगी ख़बर कितना नादान था मैं ख़्वाब छुप सकते हैं क्या रौशनी मुट्ठी में रुक सकती है क्या वो जो होना था हुआ आपके सामने सरकार हूँ मैं जो सज़ा चाहे अदालत देदे फ़ैसला सुनने को तैयार हूँ मैं हाँ गुनहगार हूँ मैं
फ़ैसला ये है अदालत का तिरे सारे ख़्वाब आज से तिरे नहीं है मुजरिम! ज़हन के सारे सफ़र और तिरे दिल की परवाज़ जिस्म में बहते लहू के नग़में रूह का साज़ समाअत आवाज़ आज से तेरे नहीं है मुजरिम! वस्ल की सारी हदीसें ग़मे हिज्राँ की किताब तेरी यादों के गुलाब तेरा एहसास तिरी फ़िक्रो नज़र तेरी सब साअतें सब लम्हे तिरे रोज़ो-शब, शामो-सहर आज से तेरे नहीं है मुजरिम! ये तो इनसाफ़ हुआ तेरी ख़रीदारों से औक अब तेरी सज़ा तुझे मरने की इजाज़त नहीं जीना होगा।
ग़म बिकते हैं बाज़ारों में ग़म काफ़ी महँगे बिकते हैं लहजे की दुकान अगर चल जाए तो जज़्बे के गाहक छोटे बड़े हर ग़म के खिलौने मुँह माँगी क़ीमत पे ख़रीदें मैंने हमेशा अपने ग़म अच्छे दामों में बेचे हैं लेकिन जो ग़म मुझको आज मिला है क्सी दुकाँ पर रखने के क़ाबिल नहीं है पहली बार मैं शर्मिन्दा हूँ ये ग़म बेच नहीं पाउंगा।
गहरा सन्नाटा है कुछ मकानों से ख़ामेश उठता हुआ गाढ़ा काला धुआँ मैल दिल में लिए हर तरफ़ दूर तक फैलता जाता है गहरा सन्नाटा है
लाश की तरह बैजान हे रास्ता एक टुटा हुआ ठेला उल्टा पड़ा अपने पहिये हवा में उठाए हुए आसमानों को हैरत से ताकता है जैसे कि जो भी हुआ उसका अब तक यक़ीं इसको आया नहीं गहरा सन्नाटा है
एक उजड़ी दुकाँ चीख़ के बाद मुँह जो खुला का खुला रह गया अबने टूटे कीवाड़ों से वो दूर तक फैले चूड़ी के टुकड़ों को हसरतज़दा नज़रों से देखती है कि कल तक यही शीशे इस पोपले के मुँह में सौ रंग के दाँत थे गहरा सन्नाटा है
गहरे सन्नाटे ने अपने मंज़र से युँ बात की सुन ले उजड़ी दुकाँ ए सुलगते मकाँ टुटे ठेले तुम्ही बस नहीं हो अकेले यहाँ और भी हैं जो ग़ारत हुए हैँ हम इनका भी मातम करेंगे मगर पहले उनको तो रो लें कि जो लूटने आए थे और ख़ुद लुट गए क्या लूटा इसकी उनको ख़बर ही नहीं कमनज़र है कि सदियों की तहज़ीब पर उन बेचारों की कोइ नज़र ही नहीं।
आज इस शहर में हर शख़्स हिरासाँ क्यूँ है चेहरे क्यों फ़क़ हैं गली कूचों में किसलिए चलती है ख़ामोशो-सरासीमा हवा आश्ना आँखों पे भी अजनबियत की ये बारीक सी झिल्ली क्यूँ है शहर सन्नाटे की ज़जीरों में जकड़ा हुआ मुलज़िम सा नज़ आता है इक्का-दुक्का कोइ रहगीर गुज़र जाता है ख़ौफ़ की गर्द से क्यूँ धुँधला है सारा मंज़र शाम की रोटी कमाने के लिए घर से निकले तो हैं कुछ लोग मगर मुड़के क्यूँ देखते हैं घर की तरफ़ आज बाज़ार में भी जाना पहचाना सा वह शोर नहीं सब यूँ चलते हैं कि जैसे ये ज़मीं काँच की है बात खुलकर नहीं हो पाती है साँस रोके हुए बच्चे की तरह अपनी परछाईँ से भी डरता है
ऐ माँ टेरेसा मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है जाने कितने सुख़े लब और वीराँ आँखें जाने कितने थके बदन और ज़ख़्मी रूहें कूड़ाघर मे रोटी का एक टुकड़ा ढूँढते नंगे बच्चे फ़ुटपाथों पर गलते सड़ते बुड्ढे कोढ़ी जाने कितने बेघर बेदर बेकस इनसाँ जाने कितने टूटे कुचले बैबस इनसाँ तेरी छाँवों में जीने की हिम्मत पाते हैं िनको अपने होने की जो सज़ा मिली है उस होने की सज़ा से थोड़ी सी ही सही मोहलत पाते हैं और तेरा करम है एक समंदर जिसका कोई पार नहीं है ऐ माँ टेरेसा मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है
मै ठहरा ख़ुदग़र्ज़ बस इक अपनी ही ख़ातिर जीनेवाला मैं तुझसे किस मूँह से पूँछू तूने कभी ये क्यों नहीं पूछा किसने इन बदहालों को बदहाल किया है तूने कभी ये क्यूँ नहीं सोचा कोन-सी ताक़त इनसानों से जीने का हक़ छीनके उनको फ़ुटपाथों और कूड़ाघरों तक पहुँचाती है तूने कभी ये क्यूँ नहीं देखा बही निज़ामे-ज़र जिसने इन भूखों से रोटी छीनी है तिने कहने पर भूखों के आगे कुछ टुकड़े डाल रहा है तूने कभी ये क्यूँ नहीं चाहा नंगे बच्चे बुड्ढे कोढ़ी बेबस इनसाँ इस दुनिया से अपने जीने का हक़ मांगें जीने की ख़ैरात न माँगें ऐसा क्यूँ है इक जानिब मज़लूम से तुझको हमदर्दी है दूसरी जानिब ज़ालिम से भी आर नहीं है लेकिन सच है ऐसी बातें मैं तुझसे किस मुँह से पूछूँ पूछूँगा तो मुझ पर भी वो ज़िम्मेदारी आ जाएगी जिससे मैं बचता आया हूँ
बेहतर है ख़ामोश रहूँ मैं और अगर कुछ कहना हो तो यही कहूँ मैं ए माँ टेरेसा मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है।
जब वो कम उम्र ही था उसने ये जान लिया था कि अगर जीना है बड़ी चालाकी से जीना होगा आँख की आख़िरी हद तक है बिसाते-हस्ती और वो मामूली सा एक मोहरा है एक इक ख़ाना बहूत सोचके चलना होगा बाज़ी आसान नहीं थी उसकी दूर तक चारों तरफ़ फैले थे मोहरे जल्लाद निहायत सफ़्फ़ाक सख़्त बेरहम बहुत ही चालाक अपने क़ब्ज़े में लिए पूरी बिसात उसके हिस्से में फ़क़त मात लिए वो जिधर जाता उसे मिलता था हर नया ख़ाना नई घात लिए वो मगर बतता रहा चलता रहा एक घर दूसरा घर तीसरा घर पास आया कभी औरों के कभी दूर हुआ वो मगर बचता रहा चलता रहा गो कि मामूली सा मोहरा था मगर जीत गया यूँ वो इक रोज़ बड़ा मोहरा बना अब वो महफ़ूज़ है इक ख़ाने में इतना महफ़ूड़ कि दुशमन तो अलग दोस्त भी पास नहीं आ सकते
उसके इक हात में है जीत उसकी दुसरे हात में तनहाई है।
आँख खुल गयी मेरी हो गया मैं फिर ज़िन्दा पेट के अँघेरों से ज़हन के धुँधलकों तक एक साँप के जैसा रेंगता ख़याल आया आज तिसरा दिन है---आज तिसरा दिन है।
इक अजीब ख़ामोशी मुंजमिद है कमरे में एर फ़र्श और इक छत और चारदीवारें मुझसे बैतआल्लुक़ सब सब मिरे तमाशाई सामने की खिड़की से तेज़ धूप की किरनें आ रही हैं बिस्तर पर चुभ रही हैं चेहरे में इस क़दर नुकीली हैं जैसे रिश्तेदारों के तंज़ मेरी ग़ुरबत पर आँख फुल गयी मेरी आज खोखला हूँ में सिर्फ़ ख़ोल बाक़ी है आज मेरे बिस्र में लेटा है मेरा ढाँचा अपनी मुर्दा आँखों से देखता है कमरे को आज तीसरा दिन है आज तीसरा दिन है।
दोपहर की गर्मी में बेइरादा क़दमों से इस सड़क पे चलता हूँ तंग-सी सड़क पर हैं दोनों सस्त दूकानें ख़ाली ख़ाली आँखों से हर दुकान का तख़्ता सिर्फ़ देख सकता हूँ अब पढ़ा नहीं जाता लोग आते जाते हैं पास से गुज़रते हैं फिर भी कितने घुँधले हैं सब है जैसे बेचेहरा शोर इन दूकानों का राह चलती इक गाली रेडियो की आवाज़ें दूर की सदाएँ हैं आ रही है मीलों से जो भी सुन रहा हूँ मैं जो भी देखता हूँ मैं ख़्वाब जैसा लगता है है भी और नहीं भी है दोपहर की गर्मी में बेइरादा कदमों से इक सड़क पे चलता हूँ सामने के नुक्कड़ पर नल द्खायी देता है सख़्त क्यों है ये पानी क्यों गले में फँसता है मेरे पेट में जैसे घुँसा एक लगता है आ रहा है चक्कर-सा जिस्म पर पसीना है अब सकत नहीं बाक़ी आज तीसरा दिन है आज तीसरा दिन है।
हर तरफ़ अँधेरा है घाट पर अकेला हूँ सीढ़ियाँ हैं पत्थर की सीढ़ियों पे लेटा हूँ अब मैं उठ नहीं सकता आसमाँ को तकता हूँ आसमाँ की थाली में चाँद एक रोटी है झुक रही हैं अब पलकें डूबता है ये मंज़र है ज़मीन गर्दिश में
मेरे घर में चूल्हा था रोज़ खाना पकता था रोटियाँ सुनहरी हैं गर्म गर्म ये खाना खुल नहीं नहीं आँखें क्या मैं मरनेवाला हूँ माँ अजीब थी मेरी रोज़ अपने हाथों से मुझको वो खिलाती थी कौन सर्द हाथों से छू रहा है चेहरे को इक निवाला हाथी का इक निवाला घोड़े का इक निवाला भालू का मौत है कि बेहोशी जो भी है ग़नीमत है आज तीसरा दिन था, आज तीसरा दिन था।
मैं जब भी ज़िन्दगी कि चिलचिलाती धूप में तपकर मै जब भी दुसरों के और अपने झूठ से थककर मैं सबसे लड़ के खुद से हारके जब भी उस इक कमरे में जाता था वो हलके और गहरे कत्थई रंगों का इक कमरा वो बेहद मेहरबाँ कमरा जो अपनी नर्म मुट्ठी में मुझे ऐसे छुपा लेता था जैसे कोई माँ बच्चे को आँचल में छुपा ले प्यार से डाँटे ये क्या आदत है जलती दोपहर में मारे मारे घुमते हो तुम वो कमरा याद आता है दबीज़ और ख़सा भारी कुछ ज़रा मुशकिल से खुलने वाला वो शीशम का दरवाज़ा़ कि जैसे कोई अक्खड़ बाप अपने खुरदुरे सीने में शफ़्क़त के समंदर को छुपाये हो वो कुर्सी और उसके साथ वो जुड़वा बहन उसकी वो दोनो दोस्त थीं मेरी वो एक गुस्ताख़ मुँहफट आईना जो दिल का अच्छा था वो बेहंगम सी अलमारी जो कोने में खड़ी इक बुड़ी अन्ना की तरह आईने को तन्बीह करती थी वो एक गुलदान नन्हा-सा बहुत शैतान उन दोनों पे हँसता था दरीचा या ज़हानत से भरी इक मुस्कुराहट और दरीचे पर झुकी वो बेल कोई सब्ज़ सरगोशी किताबें ताक में और शेल्फ़ पर संजीदा उस्तानी बनी बैठीं मगर सब मुंतज़िर इस बात की मैं उनसे कुछ पूछूँ सिरहाने नींद का साथी थकन का चारागर वो नर्म-दिल तकिया मैं जिसकी गोद में सर रखके छत को देखता था छत की कड़ियों में न जाने कितने अफ़सानो का कड़ियाँ थीं वो छोटी मेज़ पर और सामने दीवार पर आवेज़ाँ तस्वीरें मुझे अपनाईयत से और यक़ीं से देखतीं थीं मुस्कुराती थीं उन्हें शक भी नहीं था एक दिन मैं उनको ऐसे छोड़ जाऊँगा मैं इक दिन यूँ भी जाऊँगा कि फिर वापस न आऊँगा
मैं अब जिस घर में रहता हूँ बहुत ही ख़ूबसूरत है मगर अकसर यहाँ ख़मोश बैठा याद करता हूँ वो कमरा बात करता था।