जावेद अख़्तर - आधुनिक भारत के बहुत ही जाने माने और बहुत ही परिचित नाम हैं।
उनका जन्म ग्वालियर मे हुआ था । वह एक ऐसे परिवार के सदस्य हैं जिसके ज़िक्र बिना
उर्दु साहित्य का इतिहास ही अधुरा रह जायगा। पिता जान निसार अखतर प्रसिद्ध प्रगतिशील
कवि और माता सफिया अखतर मशहूर उर्दु लेखिका तथा शिक्षीका थीं। ज़ावेदजी प्रगतिशील
आंदोलन के एक और सितारे लोकप्रिय कवि मजाज़ के भांजे भी हैं। अपने दौर के रससिद्ध
शायर मुज़्तर ख़ैराबादी जावैदजी के दादा थे। मुज़्तर के पिता सैयद अहमद हुसैन "रुस्वा"
भी एक कवि थे। मुज़्तर की माता सइदुन-निसा "हिरमाँ" उन्निसवीं सदी की उन
कवियत्रियों में से हैं जिनका नाम उर्दू के इतिहास में आता है। जावेद के परदादी "हिरमाँ"
के पिता अल्लामा फ़ज़ले-हक़ ख़ैराबादी अपने समय के एक विश्वस्त अध्येता, दार्शनिक,
तर्कशास्त्री और अरबी के शायर थे। वह ग़ालिब के क़रीबी दोस्त भी थे और उन्हिनें
"दीवाने-ग़ालिब" का सम्पादना किये थे। फ़ज़ले-हक़ ख़ैराबादी 1857 की स्वतंत्रता की
पहली लड़ाई में नेतृत्व देने के ज़ुर्म में अंग्रेज़ों से कालापानी की सज़ा पाई और वहीं
अंडमान में उनका देहान्त हुआ।
मुसलिम कुलीनवर्ग के होते हुये भी ज़ावेद अख़तर के माता-पिता मार्कसवाद में दिक्षित हो
चुके थे। कई लोग कहते हैं कि वह ग़लत राजनीति थी। लेकिन ये लोग सच्चाई और
इमानदारी के साथ एक नये ज़माने का सपना देख रहे थे, जो हो ना सका। मार्कसवाद
कितना भी खराब हो, फिर भी उस समय इसके प्रभाव से सारे देश में एक जेनरेशन बड़ी
उँची आदर्श के साथ जींदगी शुरू किये थे। उसी के लिए आज भी हमें लगता हैं कि -
अगर मार्कसवादी है तो ज़रूर इमानदार होगा। काश, हम मार्कसवादी कम्युनिस्ट पार्टी
(CPIM) के (विशेषतः पश्चिमबंगाल के) लोगों के बारे मे यह बात आज भी कह सकते।
अब, इतने सालों में, हमें पता चल गया है कि मार्कस्वाद सिर्फ एक किताबी ख़्वाब ही हो
सकता है। जो असल में मानवजाति के एक नये ढंग से शोषण का ज़रीया मात्र है। रुस,
चीन, भियेतनाम, कोरिया, सभी जगह पर सिर्फ तानाशाही ही दिखाई देती है। स्टॉलिन
और माओ-ज़े-डं के अत्याचार और गणहत्या के समीप हिटलर फ़ीके पड़ जाते हैं। क्या
यही सच, जावेद को, एक दूरद्रष्टा की तरह, उनकी स्कूल जीवन में ही पता चल गया था?
नहीं तो दुसरे बच्चे जब इंजिन ड्राईवर बनने की ख़्वाब देखते थे, जावेद नें फैसला कर
लिया था कि वह अमीर बनेंगे! लेकिन उनके पूर्वजों का सुफ़ी समाज के मानव प्रेम, धर्म
निरपेक्षता और मार्कसवाद के साम्यवाद जावेद को नहीं छोड़ा।
हमने उनके पत्नी शबाना आज़मी और उन्हे मौलवाद के ख़िलाफ़ आवाज उठाते हुए देखा।
लेकिन ये भी दुसरे मार्कसवादीयों कि तरह है, ऐसा सोच कर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
क्यों कि मार्कसवादी लोग अब सिर्फ भोट-बॉंक पॉलिटिकस ही करतें हैं। जहां हिन्दु
मौलवादी देखें वहि नारेबाज़ी चालु करते हैं। अन्य मौलवादी इन्हें दिखाई ही नहीं पड़ता।
लेकिन शायद 2006 में एक ऐसी घटना हमने देखा, जो जावेद और शाबाना के बारे में,
हमारे सारे सोचविचार ग़लत साबित कर दिए। वह था मुम्बई मे, बंग्लादेशी लेखिका
तसलिमा नसरीन की एक किताब की मराठी अनुवाद का प्रकाशन। उस अवसर पर
तसलिमा को जिन लोग संवर्धना दिये थे, उनमें ज़ावेद अख़्तर और शबाना आज़मी
मुख्य थे। जिस तसलिमा के सर पे फ़तवा का तलवार लटक रहा है (अब भी), उसके
आसपास ऐसे मशहूर मुसलमानों को दिखाइ देना बहुत बड़े साहस का परिचय है।
मजे की बात ये भी थी कि उन दिनों ही हमारे पश्चिमबंगाल के मार्कसवादी मुख्यमंत्री श्री
बुद्धदेब भट्टाचार्यजी ने बैन्डबाजा के साथ तसलिमा के ही एक किताब को बैन (ban) करने
के लिये हाईकौर्ट मे सरकारके तरफ से केस दर्ज कर चुके थे। महामान्य हाईकौर्ट, केस को
खारिज कर देने के बाद, जबरदस्ती तसलिमा को दिल्ली ले जाकर गृहबन्दी बना दिया
गया। और बाद मे वहीं से उन्हे देश के बाहर भेज(फैंक) दिया गया। यही पहला बार नहीं
जब कोइ शिल्पी-कवि-फ़नकार को देश छोड़ना पड़ा। भारत के सबसे मशहूर आर्टिस्ट
मक़बूल फ़िदा हुसेन को भी मुम्बई के शीवसेना के उग्रवाद के लिए भारत छोड़ना पड़ा
था। सैटानिक भर्सेस का लेखक सलमान रूशदी को भी भारत में रहने को मना कर
दिया था भारत सरकार। हम तसलिमा या हुसेन या रूशदी के भावनाओं से सहमत हो
या न हो, उनके कहने का अधिकार छीन नहीं सकते। तो फिर सवाल यह उठता हे कि,
इस देश में बोलने का अधिकार है या नहीं?
जब ऐसा लगने लगता कि सब कुछ ख़तम हो चुका है, तब जावेद और शाबाना के जैसे
इनसानों को इस हक़ के लिए आगे बड़ते देख फिरसे उमीदें जागने लगती है। हम एक
बहुत ही छोटे वेबसाइट के संचालक हैं। शायद उनके सामने हम कभी पहूंच भी न
पायेंगे। फिर भी, अगर मिले तो जरुर कहुंगा कि "जावेद साहब, हमें नाज है आपके
हमवतन होने के लिये"।
जावेद साहब का पड़ाई सम्पन्न होने के बाद वे मुम्बई आकर फिल्मों में गीत तथा
पटकथाकार के रूप मे हमारे सामने आए । पहला फिल्म 1969 मे हाथी मेरे साथी ।
उनके लिखे गीत हिन्दोस्तान का बच्चा बच्चा के होंठों पर गुँजता रहता है । शायद उन्ही
का डायलॉग बोल बोल कर हम जवान हुए।
जावेद अख़्तर की कविता एक शहरी सभ्यता में जीने वाले एक शायर की शायरी है।
ज़िन्दगी मे उन्होंने अपने बलबुतों पर खड़े हूए। पिताजी रहते हुए भी सर पर उनका
छाया न था। इसलिये उन्होंने जीवन को बहुत क़रीब से देखा है, जाना है और ...ठोकरें
खाने के बाद ही ... जावेद अख़्तर बन पाये।
हम यहां पर उनके कुछ कविता पेश करते हैं। उनके प्रति यही हमारा श्रद्धांजली है।
उनके जीवन के बारे में और जानकारी के लिए यहां क्लिक किजीये।
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