चाँद का मुँह टेढ़ा है

नगर के बीचो-बीच
आधी रात-अँधेरे की काली स्याह
.        शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चाँदनी की फैली हुई सँवलाई चादरें।
कारख़ाना अहाते के उस पार
घुम्र मुख चिमनियों को ऊँचे-ऊँचे
उदगार-चह्राकार-मीनार,
मीनारों के बीचो-बीच
चाँद का है टेढ़ा मुँह !!
भयानक स्याह सन तिरपन का चाँद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
पीपल के ख़ाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं ख़ली हुए कारतूज़।
गंजे-सिर चाँद की सँवलायी किरणों के जासूस
साम-सूम नगर में घीरे-घीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकनों में छिपें हैं !!
चाँद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती हैं
अँधेरे में, पट्टियाँ।
देखती हे नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह।

समीप विशालाकार
अँधियाले लाल पर
सूनेपन की स्याही में डूबी हुई
चाँदनी भी सँवलायी हुई है !!

भीमाकार पूलों के बहुत नीचे, भयभीत
मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर
बहते हुए पथरीले नालों की धारा में
धराशायी चाँदनी के होंठ काले पड़ गये

हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी--
चूनरी में ओटकी है कंजी आँख गंजे सिर
टेढ़े मुँह चाँद की।

बारह का वक्त है,
भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यन्त्र
शहर में चारों ओर ;
ज़माना भी सख़्त है !!

अजी इस मोड़ पर
बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल
अजगरी मेहराब-
मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में
.                बसी हुई
सड़ी-बुसी बास लिये--
फैली है गली के
मुहाने में चुपचाप।
लोगों के अरे ! आने-जाने में चुपचाप,
अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप
फड़फड़ाते पक्षियों के बीट हो !!
गगन में करफ़्यू है,
वृक्षों मे बैठे हुए पक्षियों पर करफ़्यू है,
धरती पर किन्तु अजी ! ज़हरीली छिः थूः है।

बरगद की डाल एक
मुहाने से आगे फै
सड़क पर बाहरी
लटकती है इस तरह--
मानो कि आदमी के जनम के पहले से
पृथ्वी की छाती पर
जंगली मैमथ की सूँड़ सुँघ रही हो
हवा के लहरीले सिफ़रों को आज भी
घिरी हुई विपदा घेरे-सी
बरगद की घनी घनी छाँव में
फूटी हुई चुड़ियों की सूनी-सूनी कलाई-सा
.                सूनी-सूनी गलियों में
ग़रीबों के ठाँव में-
चौराहे पर खड़े हुए
भैरों की सिन्दूरी
गेरुई मूरत के पथरीले व्यंग्य स्मित पर
टेढ़े मुँह चाँद की राज़-भरी झाईयाँ !!
तजुर्बों का ताबूत
ज़िन्दा यह बरगद
जानता कि भैरों यह कौन है !!
कि भैरों की चट्टानी पीठ पर
पैरों की मज़बूत
पत्थरी-सिन्दूरी ईंट पर
भभकते वर्णों के लटकते पोस्टर
ज्वलन्त अक्षर !!

सामने है अँधियाला ताल और
स्याह उसी ताल पर
सँवलायी चाँदनी
समय का घण्टाघर
निराकार घण्टाघर
गगन में चुपचाप अनाकार खड़ा है !!
परन्तु, परन्तु . . . बतलाते
जिन्दगी के काँटे ही
कितनी रात बीत गयी

चप्पलों की छपछप,
गली के मुहाने से अजीब-सी आवाज़,
फुसफुसाते हुए शब्द !
जंगल की डालों से गुज़रती हवाओं की सरसर
गली में ज्यों कह जाय
इशारों के आशय,
हवाओं की लहरों के आकार--
किन्हीं ब्रह्म-राक्षसों के निराकार
अनाकार
मानो बहस छेड़ दें
बहस जैसे बढ़ जाय
निर्णय पर चली आय
वैसे शब्द बार-बार
गलियों की आत्मा में
बोलते हैं एकाएक
अँधेरे के पेट में से
ज्वालाओं की आँत बाहर निकल आय
वैसे, ओरे, शब्दों की धार एक
बिजली की टॉर्च की रोशनी की मार एक
बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर
फैल गई अकस्मात्
बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर
फैल गये हाथ दो
मानो हृदय से छिपी हुई बातों ने सहसा
अँधेरे से बाहर आ भुजाएँ पसारी हों
कोलतारी सड़क पर खड़े हुए सर्वोच्च
गाँधी के पुतले पर
बैठे हुए आँखों के दो चक्र
यानी कि घुग्घु एक--
तिलक के पुतले पर
बैठे हुए घुग्घु से
बातचीत करते हुए
कहता ही जाता है--
“. . . मसान में . . .
मैने भी सिद्घी की।
देखो मुठ मार दी
मनुष्यों पर इस तरह . . .”
तिलक के पुतले पर बैठे हुए घुग्घु ने
देखा कि भयानक लाल मुँठ
काले आसमान में
तैरती सी धीरे धीरे जा रही

उदगार-चिह्नाकार विकराल
तैरता था लाल-लाल !!
देख, उसने कहा कि वाह-वाह
रात के जहाँपनाह
इसिलिये आज-कल
दिन के उजाले में भी अँधेरे की साख है
रात्रि की काँखों में दबी हुई
संस्कृति-पाखी के पंख है सुरक्षित !!
. . . पी गया आसमान
रात्री की अँधियाली सचाइयाँ घोंट के,
मनुष्यों को मारने के ख़ूब हैं ये टोटके !
गगन में करफ़्यू है,
ज़मानें में ज़ोरदार ज़हरीली छिः थूः है !!
सराफ़े में बिजली के बूदम
खम्बों पे लटके हुए मघ्दिम
दिमाग में धुन्ध है,
चिन्ता है सट्टे की हृदय-विनाशिनी !!
रात्रि की काली स्याह
कड़ही से अकस्मात्
सड़को पर फैल गयी
सत्यों की मिठाई की चाशनी !!

टेढ़े मुँह चाँद की ऐयारी रोशनी
भीमाकार पुलों के
ठीक नीचे बैठकर,
चोरों-सी उचक्कों-सी
नालों और झरनों के तटों पर
किनारें-किनारें चल,
पानी पर झुके हुए
पेड़ों के नीचे बैठ,
रात-बे-रात वह
मछलियाँ फँसाती है
आवारा मछुओं-सी शोहदों-सी चाँदनी
सड़कों के पिछवाड़े
टूटे-फूटे दृश्यों में,
गन्गी के काले-से नाले के झाग पर
बदमस्त कल्पना-सी फैली थी रात-भर
सेक्स के कष्टों के कवियों के काम-सी !
किंग्सवे में मशहूर
रात की है ज़िन्दगी !
सड़कों की श्रीमान्
भारतीय फिरंगी दूकान,
सुगन्धित प्रकाश में चमचमाता ईमान
रंगीन चमकती चीज़ों के सुरभित
स्पर्शों में
शीशों की सुविशाल झाँइयों के रमणीय
दृश्य़ों मे
बसी थी चाँदनी
ख़ुबसूरत अमरीकी मैगज़ीन-पृष्ठों-सी
खुली थी,
नंगी सी नारियों के
उधरे हुए अंगों के
विभिन्न पोज़ों में
लेटी थी चाँदनी
सफेद
अण्डरवीयर-सी, आधुनिक प्रतीकों में
फैली थी चाँदनी !
करफ्यू नहीं यहाँ, पसन्दी. . . सन्दली,
किंग्सवे में मशहूर रात की है ज़िन्दगी

अजी, यह चाँदनी भी बड़ी मसखरी है !!
तिमंज़ीलें की एक
खिड़की में बिल्ली के सफेद धब्बे-सी
चमकती हुइ वह
समेटकर हाथ-पाँव
किसी की ताक में
बैठी हुई चुपचाप
धीरे से उतरती है
रास्तों पर पथों पर ;
चड़ती है छतों पर
गैलरी में घूम और
खपरैलों पर चड़कर
नीमों की शाखों के सहारे
आँगन में उतरकर
कमरों में हलके-पाँव
देखती है, खोजती है--
शहर के कोनों के तिकोनें में छुपी हुई
चाँदनी

सड़क के पेड़ों के गुम्बदों पर चढ़कर
महल उलाँघ कर
मुहल्ले पार कर
गलीयों की गुहाओं में दबे-पाँव
खुफ़िया सुराग में
गुप्तचरी ताक में
जमी हुई खोजती है कौन वह
कन्धों पर अँधेरे के
चिपकाता कौन है
भड़कीले पोस्टर,
लम्बे-चौड़े वर्ण और
बाँके-तीरछे घनघोर
लाल-नीले अक्षर।

कोलतारी सड़क के बीचो-बाच खड़ी हुई
गान्धी की मूर्ती पर
बैठे हुए घुग्घू नें
गाना शुरू किया,
हिचकी की ताल पर
साँसों ने तब
मर जाना
शुरू किया,
टेलीफ़ोन-खम्भो पर थमे हुए तारों ने
सट्टे के ट्रंक-कॉल सुरों मे
थर्ऱाना और झनझनाना शुरू किया !
रात्री का काला-स्याह
कन-टोप पहने हुए
आसमान-बाबा ने हनुमान-चालीसा
डूबी हुई बानी में गाना शुरू किया।
मसान के उजाड़
पेड़ों की अँधियाली साख पर
लाल-लाल लटके हुए
प्रकाश के चीथड़े--
हिलते हुए, डुलते हुए, लपट के पल्लू।
सचाई के अधजले मुर्दों की चिताओं की
फटी हुई, फुटी हुई दहक में कवियों ने
बहकती कविताएँ गाना शुरू किया।
संस्कृति के कुहरीले धुएँ से भूतों के
गोल-गोल मटकों से चेहरें ने
नम्रता के घिघियाते स्वाँग में
दुनिया को हात जोड़
कहना शुरू किया—
बुद्ध के स्तूप में
मानव के सपने
गड़ गये, गाड़े गये !!
ईसा के पंख सब
झड़ गये, झाड़े गये !!
सत्य का
देवदासी-चोलियाँ उतारी गयीं
उघारी गयीं,
सपनों की आँतें सब
चीरी गयीं, फाड़ी गयीं !!
बाक़ी सब खोल है,
ज़िन्दगी में झोल है !!
गलियों का सिन्दुरी विकराल
खड़ा हुआ भैरों, किन्तु,
हँस पड़ा ख़तरनाक
चाँदनी के चेहरे पर
गलियों की भूरी ख़ाक
उड़ने लगी धूल और
सँवलाई नंगी हुई चाँदनी !

और उस अँधियाले ताल के उस पार
नगर निहारता-सा खड़ा है पहाड़ एक
लोहे की नभ-चुम्बी शिला का चबूतरा
लोहांगी कहता है
कि जिसके भव्य़ शिर्ष पर
बड़ा भारी खण्डहर
खण्डहर के ध्वंसों मे बुजुर्ग दरख़्त एक
जिसके घने तने पर
लिक्खी है प्रेमियों ने
अपनी याददाश्तें,
लोहांगी मे हवाएँ
दरख़्त मे घुसकर
पत्तों से फुसफुसाती कहती हैं
नगर की व्याथाएँ
सभाओं की कथाएँ
मोर्चों की तड़प और
मकानों के मोर्चे मीटिंगों के मर्म-राग
अंगारों से भरी हुई
प्राणों की गर्म राख
गलियों मे बसी हुई छायाओं के लोक में
छायाएँ हिली कुछ
छायाएँ चली दो
मध्दिम चाँदनी में
भैरों के सिन्दूरी भयावने मुख पर
छायीं दो छायाएँ
छरहरी छाईयाँ !!
रात्रि की थाहों में लिपटी हुई साँवली तहों में
ज़िन्गी की प्रश्नमई थरथर
थरथराते बेक़ाबू चाँदनी के
पल्ले-सी उड़ती है गगन-कंगूरों पर।
पीपल के पत्तों के कम्प में
चाँदनी के चमकते कम्प से
ज़िन्दगी की अकुलाई थाहों के अंचल
उड़ते हैँ हवा में !!

गलियों के आगे बड़
बगल में लिये कुछ
मोटे मोटे काग़ज़ो की घनी घनी भोंगली
लटकाये हाथ में
जिब्बा एक टिन का
डिब्बे में धरे हुए लम्बी सी कूँची एक
ज़माना नंगे-पैर
कहता मै पेण्टर
शहर है साथ-साथ
कहता में कारीगर—
बरगद की गोल-गोल
हड्डियों की पत्तेदार
उलझनों की ढाँचों में
लटकाओ पोस्टर,
गलियों के अलमस्त
फ़क़ीरों के लहरदार
गीतों से फहराओ
चिपकाओ पोस्टर
कहता है कारीगर।
मज़े मे आते हुए
पेण्टर ने हँसकर कहा—
पोस्टर लगे हैं,
कि ठिक जगह
तड़के ही मज़दूर
पढ़ेंगे घूर-घूर,
रास्ते में खड़े-खड़े लोग-बाग
पढ़ेंगे जिन्दगी की
झल्लाई हुई आग !
प्यारे भाई कारीगर,
अगर खींच सकूँ मैं—
हड़ताली पोस्टर पढ़ते हुए
लोगों के रेखा चित्र,
बड़ा मज़ा आएगा
कत्थई खपरैलों से उठते हुए धुएँ
रंगों मे
आसमानी स्याही मिलायी जाय,
सुबह की किरनों के रंगों में
रात के गृह-दीप-प्रकाश को आशाएँ घोलकर
हिम्मतें लायी जायँ,
स्याहियों से आँख बने
आँखों की पुतली में धधक की लाल-लाल
पाँख बने,
एकाग्र घ्यान भरी
आँखों की किरनें
पोस्टरों पर गीरें-तब
कहो भाई कैसा हो ?
कारीगर ने साथी के कन्घे पर हात रख
कहा तब—
मेरे भी करतब सुनो तुम,
धुएँ से कजलाये
कोठे की भीत पर
बाँस की तीली की लेखनी से लिखी थी
राम-कथा व्यथा की
कि आज भी जो सत्य है
लेकिन, भाई, कहाँ अब वक़्त है
तसवीरें बनाने की
इच्छा अभी बाक़ी है—
ज़िन्दगी भूरी ही नहीं, वह ख़ाकी है।
ज़माने ने नगर के कन्धे पर हात रख
कह दिया साफ़-साफ़
पैरों के नखों से या डण्डे की नोक से
धरती की धूल में भी रेखाएँ खींचकर
तसवीरें बनाती हैं
बशर्ते कि ज़िन्दगी के चित्र-सी
बनाने का चाव हो
क्ष्रद्धा हो, भाव हो।
कारीगर ने हँसकर
बग़ल मे खींचकर पेण्टर से कहा, भाई
चित्र बनाते वक़्त
सब स्वार्थ त्यागे जायँ,
अँधेरे से भरे हुए
ज़ीने की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती जो
अभिलाषा-अन्ध है
ऊपर के कमरे सब अपने लिए बन्द है
अपने लिए नहीं वे !!
ज़माने ने नगर से यह कहा कि
ग़लत है यह, भ्रम है
हमारा अधिकार सम्मिलित क्ष्रम और
छीनने का दम है !
फ़िलहाल तसवीरें
इस समय हम
नहीं बना पाएँगे
अलबत्ता पोस्टर हम लगा जाएँगे।
हम घघकाएँगे।
मानो या मानो मत
आज तो चन्द्र है, सविता है,
पोस्टर ही कविता है !!
वेदना के रक्त से लिखे गये
लाल-लाल घनघोर
घघकते पोस्टर
गलियों के कानों में बोलते हैं
घड़कती छाती की प्यार-भरी गरमी में
भाफ-बने आँसू के ख़ूँखार अक्षर !!
चटाख से लगी हूई
रायफली गोली के धड़ाकों से टकड़ा
प्रतिरोधी अक्षर
ज़माने के पैग़म्बर
टूटता आसमान थामते हैं कन्धों पर
हड़ताली पोस्टर
कहते हैं पोस्टर—
आदमी की दर्द-भरी गहरी पुकार सुन
पड़ता है दौड़ जो
आदमी है वह ख़ूब
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी ;
बूढ़ी माँ के झुर्रीदार
चेहरे पर छाये हुए
आँखों मे डूबे हुए
ज़िन्दगी के तजुर्बात
बोलते हैं एक साथ
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी
चिल्लाते हैं पोस्टर।
घरती का नीला पल्ला काँपता है
यानी आसमान काँपता है,
आदमी के हृदय में करुणा की रिमझिम,
काली उस झड़ी में
विचारों की विक्षोभी तडित् कराहती
क्रोध की गुहाओं की मुँह खोले
शक्ति के पहाड़ दहाड़ते
काली इस झड़ी में वेदना की तड़ित् कहारती
मदद के लिए अब,
करुणा के रोंगटों में सन्नाटा
दौड़ पड़ता आदमी,
व आदमी के दौड़ने के साथ-साथ
दौड़ता जहान
और दौड़ पड़ता आसमान !!

मुहल्ले के मुहाने के उस पार
बहस छिड़ी हुई है,
पोस्टर पहने हुए
बरगद की शाखें ढीठ
पोस्टर धारण किये
भैरों की कड़ी पीठ
भैरों और बरगद में बहस खड़ी हुई है
ज़ोरदार जिरह कि कितना समय लगेगा
सुबह होगी कब और
मुशकिल होगी दूर कब
समय का कण-कण
गगन की कालीमा से
बूँद-बूँद चू रहा
तड़ित् उजाला बन !!


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मिलनसागर
कवि मुक्तिबोध का कविता
कोइ भि कविता पर क्लिक् करते हि वह आपके सामने आ जायगा
*
शून्य़

भीतर जो शून्य है
उसका एक जबड़ा है,
जबड़े में मांस काट खाने के दाँत हैं ;
उनको खा जाएँगे,
तुमको खा जाएँगे।
भीतर का आदतन क्रोधी अभाव वह
हमारा स्वभाव है,
जबड़े की भीतरी अँधेरी खाई में
ख़ून का तलाब है।
ऐसा वह शून्य है
एकदम काला है, बर्बर है, नग्न है
विहीन है, न्यून है,
अपने में मग्न है।
उसको मैं उत्तेजित
शब्दों और कार्यों से
बिखेरता रहता हूँ
बाँटता फिरता हूँ।
मेरा जो रास्ता काटनें आते हैं,
मुझसे मिले घावों में
वही शून्य पाते हैं।
उसे बड़ाते हैं, फैलाते हैं,
और-और लोगों में बाँटते बिखेरते,
शून्य की सन्तानें उभारते।
बहुत टिकाऊ है,
शून्य उपजाऊ है।
जगह-जगह करवत, कटार और दर्रात,
उगाता-बड़ाता है
मांस काट खाने के दाँत।
इसीलिए जहाँ देखो वहाँ
ख़ूब मच रही है, ख़ूब ठन रही है,
मौत अब नये-नये बच्चे जन रही है।
जगह-जगह दाँतदार भूल,
हथियार-बन्द ग़लती है,
जिन्हें देख, दुनिया हाथ मलती हुई चलती है।



.              *************  
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मिलनसागर
*
मैं तुम लोगों से दूर हूँ

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।

मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है,
अकेले में साहचर्य का हाथ है,
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं
इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !!
सबके सामने और अकेले में।
(मेरे रक्त-भरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं
तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में)

असफलता का धूल-कचारा ओढ़े हूँ
इसलिए कि वह चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है
छल-छद्दम घन की
किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ै हूँ
जीबन की।
फिर भी, मैं अपनी सार्थकता में खिन्न हूँ
विष सेअप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
वह बेहतर में हो नहीं पाता
पर, रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।

रिफ्रिज़रेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रैमों के बाहर की
गतियों की दुनिया में
मेरी वह भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों में
पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है
छाती के कोषों में रहितों की व्रीड़ा है

शून्यों से घीरी हुई पीड़ा ही सत्य है
शेष सब अवास्तव एयथार्थ मिथ्या है भ्रम है
सत्य केवल एक है जो कि
दुःखों का क्रम है।

मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ
शेव्रलेट-डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ
तेलिया-लिबास में, पुजरे सुधारता हूँ
तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।


.              *************  
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मिलनसागर
*
एक अरूप शून्य के प्रति

रात और दिन
तुम्हारे दो कान है लम्बे-चौड़े
एक बिलकुल स्याह
दूसरा कतई सफेद।
एक-न-एक कान
ढाँकता है आसमान
और इस तरह ज़माने के शुरू से
आसमानी शशि के पलँग पर सोये हो।

घरती के चीखों के शब्द
पंखदार कीड़ों से बेचैन,
तुम्हारे कानों के बालों पर बैठते
भिनभिनाते चक्कर काटते।
अटूट है, लेकिन नींद
.                आँखें ?
धुँघला सा ‘नेब्युला’ !!
एक-एक आँख में लाल-लाल पुतलियाँ
.                पुतल्याँ कैसी ?
बुलबुलों की भाँति जो बनती-बिगड़ती है
.                फिर उठ बैठतीं !!
इसीलिए कोटि-कोटि कनीनिकाओं के बावजूद
.                कुछ नहीं दीखता,
एक-एक पुतली में लाख-लाख दृष्टियाँ,
.                असंख्य दृष्टिकोण
.                बनते बिगड़ते !!
इसीलिए, तुम सर्वज्ञ हो नींद में।
फिर भी, यशस्काय दिक्काल-सम्राट्,
तुम कुछ नहीं हो, फिर भी हो सब कुछ !!
काल्पनिक योग्य की पूँछ के बालों को काटकर
.        होंटो पर मूँछ लटका रखी है !!
.        ओ नट-नायक
सारे जगत पर रौब तुम्हारा है !!
तुमसे जो इनकार करेगा
.        वह मार खाएगा
और, उस मूँछ के
.        हवाई बाल जब
बलखाते, धरती पर लहराते,
मँडराते चेहरों पर हमारे
तो उनके चुभते हुए फुरदुरे परस से
खरोंच उभरती है लाल-लाल
और, हम कहते हैं कि
.        नैतिक अनुभूति
.        हमे कष्ट देती है।
बिलकुल झूठी है सठियायी
कीर्ति यह तुम्हारी।

पर तुम भी ख़ूब हो,
देखो तो—
प्रतिपल तुम्हारा ही नाम जपती हुई
लार टपकती हुई आत्मा की कुतिया
स्वार्थ-सफलता के पहाड़ी डाल पर
चढ़ती है हाँफती,
आत्मा की कुतिया
राह का हर कोई कुत्ता जिसे छेड़ता है, छेंकता
लेकिन, तुम ख़ूब हो
सूनेपन के डीह में अँधियारी डूब हो।

मात्र अनस्तित्व का इतना बड़ा अस्तित्व
ऐसे घुप्प अँधेरे का इतना चेज़ उजाला,
लोग-बाग
अनाकार ब्रह्म के सीमाहीन शून्य के
बुलबुले में यात्रा करते हुए गोल-गोल
गोल-गोल
खोजते हैं जाने क्या ?
बेछोर सिफ़र के अँघेरे में बिला-बत्ती सप़र
.        भी ख़ूब है।
सृजन के घर में तुम
मनोहर शक्तिशाली
विश्वात्मक फ़ैण्टेसी
दुर्जनों के भवन में
प्रचण्ड शौर्यवान् अण्ट-सण्ट वरदान !!
.        ख़ूब रंगदारी है,
विपरीत दोनो दूर छोरों द्वारा पुजकर
.        स्वर्ग के पुल पर
.        चुंगी के नाकेदार
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वचख़ोर थानेदार !

ओ रे निराकार शून्य !
महान विशेषताएँ मेरे सब जनों की
तूने उधार ली
निज को सँवार लिया,
निज को अवशेष किया
यशस्काय बन गया सर्वत्र अविर्भूत !

भइ साँझ
कदम्ब-वृक्ष पास
मन्दिर-चबूतरे पर बैठ कर
जब कभी देखता हूँ तुझको
.        मुझे याद आते हैं—
भयभीत आँखों के हंस
.        व घाव-भरे कबूतर
मुझे याद आते हैं मेरे लोग
उनके सब हृदय रोग,
घुप्प अँधेरे घर,
पीली-पीली चिन्ता के अंगारों-जैसे पर
मुझे याद आती भगवान् राम की शबरी,
मुझो याद आती है लाल-लाल जलती हुई ढिबरी
मुझे याद आता है मेरा प्यारा-प्यारा देश,
.        लाल-लाल सुनहला आवेश।
.        अन्धा हूँ,
खुदा के बन्दों का बन्दा हूँ बावला
परन्तु कभी-कभी अनन्त सौन्दर्य सन्ध्या मे शंका के
काले-काले मेघ-सा
काटे हुए गणित की तिर्यक् रेख-सा
.                सरीसृप-स्रक-सा।

मेरे इस साँवले चेहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं,
.                                        दाग़ हैं,
और इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई आग है,
.                                        अग्नि-विवेक की।
नहीं, नहीं, वह-वह तो है जलन्त सरसीज !!
ज़िन्दगी के दलदल-कीचड़ में धँस कर
.        वक्ष तक पानी में फँस कर
मै वह कमल तोड़ लाया हूँ—
भीतर से इसीलिए, गीला हूँ
.        पंक से आवृत,
.        स्वयं में घनीभूत,
मुझे तेरी बिलकुल ज़रूरत नहीं है।


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मिलनसागर
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