दिल्ली के रहनेवाले, बंगला भाषा के प्रतिष्ठित कवि अध्यापक दिलीप कुमार बासु  के
अनुरोध पर हम कवि मुक्तिबोध का इस पेज प्रकाशित कर रहे हैं।

कवि गजानन माधव मुक्तिबोध   का जन्म ग्वालियर का शौपुर में हुआ था। उनके
पूर्वज ऋग्वेदी कुलकर्णी ब्राह्मणों में से किसी ने ‘मुग्ध-बोध’ या ‘मुक्त-बोध’ नाम का कोई
आध्यात्मिक ग्रन्थ रचना किया था, सम्भवतः खिलजी काल में। उसी से उनका वंश
का नाम मुक्तिबोध हो गया।

पिता माधव मुक्तिबोध कई स्थानों पर थानेदार रहकर उज्जैन में इन्सपेक्टर पद से
अवसर लिए थे। वे निर्भीक, न्यायनिष्ठ, पुजापाठी, डियूटी के कठोरता से बंधे हुए
इंसान थे। जिन्दगी में न कभी रिश्वत ली, न पैसा जमा किया। अपनी आन पे जीये।
कवि की माता बुन्देलखण्ड के ईसागढ़ के एक किसान परिवार की थी। गजानन चार
भाई थे। छोटे शरच्चन्द्र मराठी के प्रतिष्ठित कवि थें।

कवि का प्रारम्भिक शिक्षा उज्जैन में हुआ। उनके पिता चाहते थे कि वह वकील बनें।
खूब पैसा कमाए और समाज मे प्रतिष्ठित हो जाए। लेकिन कवि कमाना चाहते थे ज्ञान,
धन नहीं। खोज रहे थे नई दृष्टि और नये युग के अनुभव और काव्यों की अनुभूतियाँ,
सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं।

छात्रावस्था में ही देश के कवि साहित्यिकों के द्वारा प्रभावित होने के साथ साथ मुक्तिबोध
दॉस्तॉयवस्की, फ़्लबेअर, गोर्की और कार्ल मार्कस के रचनाओं से भी प्रभावित होने लगे
थे और
रवीन्द्रनाथ   को मूल में पढ़कर अभिभूत हुए थे।

उपेक्षितों, दलितों के लिए उसकी सहानुभूति बड़ती जा रही थी। इसि बीच उनके जीवन
मे आया प्रेम और जातपात तथा सामाजिक अनुशासनों की परवाह न करते हुए वह प्रेम
विवाह कर लिया।
1938 में वह इन्दौर के होलकर कॉलेज से बी.ए. पास करके उज्जैन
के म़ॉडर्न स्कूल में अध्यापक की नौकरी ले लिया। इसी साल पिता माधव मुक्तिबोध
रिटायर हुए। प्रेम विवाह के कारण पूरे परिवार, सम्बन्धियों तथा समाज के विरोध
झेलना पड़ा। लेकिन माता पिता के प्रति सेवा भाव मे कमी नहीं आई।

1940 में वे शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में अध्यापक बनके आए। उन दिनों
शुजालपुर के बौद्धिक वातावरण पर मार्कस छाया हुआ था। ये सब धीरे धीरे मुक्तिबोध
अपने कविताओं मे लाने लगे।

1942 साल के भारत छोड़ो आन्दोलन मे शारदा शिक्षा सदन बन्द हो जाने के पश्चात
वे उज्जैन चले गए। वहां पर वे मघ्य भारत प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद
डाली।
1944 के अन्त में इन्दौर में फ़ॉसिस्ट विरोधी लेखक कॉन्फ्रेन्स का आयोजन
किया। सन्
1945 में मुक्तिबोध उज्जैन से बनारस गये और त्रिलोचन शास्त्री के साथ
‘हंस’ पत्रिका के सम्पादना मे शामिल हुए। वहाँ वह सम्पादन से लेकर डेस्पैचर का
काम भी करते थे। वेतन सिर्फ साठ रूपये।
46 – 47 साल में वे जबलपुर जा कर
हितकारिणी हाइ स्कूल में अध्यापक की नौकरी ले ली।

जबलपुर से वह नागपुर जा बसे। नागपुर रेडिओ स्टेशन मे कुछ दिन समाचार विभाग
के सम्पादक भी रहे। उनी दिनों कृष्णानन्द सोख्ता नागपुर से एक सनसनीख़ेज
साप्ताहिक पत्रिका ‘नया खून’ प्रकाशित करते थे। मुक्तिबोध उसि में जोरदार कॉलम
लिखने लगे। यह पत्रिका बड़ी निर्भीकता से मजदूरों का पक्ष लेता था और भ्रष्ट तत्त्वों
का पर्दाफ़ाश करता था। इसि काल में उनकी ‘कामायनी : एक पुनर्मुल्यांकन’
महत्वपूर्ण आलोचनात्मक कृति प्रकाशित हुई। साथ साथ उनकी ‘एक लेखक की
डायरी’ जबलपुर के ‘वसुधा’ में धारावाहिक निकलने लगा था। इन दोनों चीजों ने
मुक्तिबोध को आलोचना के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान प्रदान कर दिया।

उन दिनों मुक्तिबोध नागपुर के शुक्रवारी में तिलक की मूर्ती के पास ही गली में रहा
करते थे। एक्सप्रेस मिल के मजदूरों पर जब गोली चली तो वहे घटनास्थल पर
मौजूद थे एक रिपोर्टर के हैसियत से। उन्होंने सिरों का फूटना और ख़ून का बहना
अपनी आँखों से देखा। मुक्तिबोध का सारा समय साधारण श्रमशील लोगों के बीच
और पत्रकारिता और राजनैतिक, साहित्यिक बहसों में बीतता था।

मित्रों के परामर्श से
1954 में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. किया और
राजनाँदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में नौकरी मिल गई। यहाँ आकर उन्होंने अपनी
कुछ सफलतम कविताओं की स़ृष्टि की, जैसे ‘ब्रह्माराक्षस’, ‘ओराँग-उटाँग’, ‘अँधेरे में’।
उनके प्रकाशित साहित्य में "चाँद का मुँह टेढ़ा है", "काठ का सपना", "विपात्र", "सतह
से उठता आदमी", "कामायनी : एक पुनर्विचार", "भारतीय इतिहास और संस्कृति",
"नयी कविता का आत्म-संघर्ष तथा अन्य निबन्ध", "नये साहित्य का सौन्दर्य-शास्त्र"
आदि प्रमुख है।  

बहुभाषावीद, विदुषी पोलिश कवियत्री अगन्येका सोनी का मत है कि मुक्तिबोध ही
हिन्दी के आघुनिक युग का सबसे शक्तिशाली कवि है। आलोचक श्री शमशेरबहादुर
सिंह का मानना है कि यह निर्विवाद है कि हिन्दी की नयी पीढ़ी का बिलकुल अपना
कवि, सबसे प्रिय कवि और विचारक गजानन मुक्तिबोध ही है। यह और वात है कि
साघारण पाठकवर्ग आज तक उससे प्रायः अपरिचित ही रहा है।

कवि मुक्तिबोध के प्रति यहि हमारा श्रद्धांजली है।

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