क्या लिखूं ? कुछ जीत लिखूं या हार लिखूं, या दिल का सारा प्यार लिखूं... कुछ अपनों के जज्बात लिखूं, या सपनो की सौगात लिखूं ... मैं खिलता सूरज आज लिखूं, या चेहरा चाँद गुलाब लिखूं... वो डूबते सूरज को देखूं, या उगते फूल की साँस लिखूं... वो पालो में बीते साल लिखूं, या सदियों लम्बी रात लिखूं... मैं तुमको अपने पास लिखूं, या दूरी का एहसास लिखूं... मैं अंधे के दिन में झाँकू, या आखों की में रात लिखूं... मीरा की पायल को सुन लू, या गौतम की मुस्कान लिखूं... बचपन में बच्चों से खेलु, या जीवन की ढलती शाम लिखूं... सागर सा गहरा हो जाऊ, या अम्बर का बिस्तार लिखूं... गीता का अर्जुन हो जाऊ, या लंका रावन राम लिखूं... मैं हिन्दू मुस्लिम हो जाऊ, या बबेस इंसान लिखूं... मैं एक ही मजहब को जी लू, या मजहब की आँखे चार लिखूं.. कुछ जीत लिखूं या हार लिखूं, या दिल का सारा प्यार लिखूं... . ---हरिश्चंद्र उपाध्याय
वक़्त की विडम्बना थी कि, जगमगाती रोशनी से दरकिनार पहुच गया दूर अंधकार में , आशातीत था जिस जीवन से मैं , बोझ वो लगने लगा उलझने बढ़ गई मन की इतनी मैं खुद को ही पहचान ना पाया कुछ दूर चलते - चलते ही दिखायी दी रोशनी की एक किरण सहसा दिखा साया अपना , उससे मेने झट ये प्रश्न पूछा क्यों आते हो पास तुम जब अँधेरे में साथ ना दो ? साये ने उत्तर दिया... हे कयातीत! तुम कैसे इन्सान हो? मैं तुम्हारा हूँ , परन्तु रोशनी का गुलाम हूँ तुम छोड़ चले जाते हो, पर वो अंधकार से बचाती है तुम जब मुझे ही ना अपना पाए, रिश्ते नाते क्या निभाओगे? उत्तर सुन साये का आँखों से ऑंसू छलक आये, व्यर्थ हमारा जीवन है, जो अपना कर्तव्य पूरा न कर पाए अश्कों पे मेरे, साये को दया आ गयी बोला... खुद को पहचनवाने के लिए, वक़्त ने खेला है तेरे साथ ये खेल हे कयातीत! जब मानव खुद को पहचानेगा, तब संसार का कल्याण होगा अचानक चमक उठी रोशनी से वह जगह खुल गयी आखें, टूट गया स्वप्न, देखा विस्तर पे लेटा था तब सोचा... खुली आँखों से जो अब तक न जान पाया, आज स्वप्न में जीवन से वास्तव में परिचय पाया . ---हरिश्चंद्र उपाध्या
अमिट छाप पगों की तेरे कौन भला इनसे अंजान हे मधुशाला के रचियता करो मुझ "अज्ञानी" का प्रणाम स्वीकार डोलने लगते हे पग मेरे जब पढता हूँ मधुशाला और नशा छाने लगता ज्यो ज्यो बड़ती शब्दों की हाला चले गए तुम छोड़ कर हमको, परन्तु दिया एक अक्षय प्याला चुन चुन कर शब्दों को तुम दे गए हो एक सुरबाला युगों युगों तक हे वंश! कोई तुम्हे ना भूल पायेगा रहे ना रहे धरा पे कोई पर अजर अमिट रहेगी तेरे मधुशाला . ---हरिश्चंद्र उपाध्याय
सोच रहा हू कई वर्षों से ये कास कोई मुझे प्यार करे जो प्यार सिखाये मुझको हसना, जो प्यार सिखाये मुझको जीना प्यार वो कुछ ऐसा हो जिसमे हो तस्वीरे सारी जिनको देख देख कर मेरी कटती थी वें रातें सारी पिछली यादें सब भूल गया जब देखा मेने तुमको भूल गया सब तन्हा रातें, भूल गया सब पिछली बातें कसम तुम्हारी सब भूल जाऊंगा सारी पिछली बातों को तुम यदि हाँ कह दो भूल जाऊंगा सब यादों को . ---हरिश्चंद्र उपाध्याय
……… इंतज़ार कराओ हमे इतना कि वक़्त के फैसले पर अफ़सोस हो जाये क्या पता कल तुम लौटकर आओ और हम खामोश हो जाएँ दूरियों से फर्क पड़ता नहीं बात तो दिलों कि नज़दीकियों से होती है दोस्ती तो कुछ आप जैसो से है वरना मुलाकात तो जाने कितनों से होती है दिल से खेलना हमे आता नहीं इसलिये इश्क की बाजी हम हार गए शायद मेरी जिन्दगी से बहुत प्यार था उन्हें इसलिये मुझे जिंदा ही मार गए मना लूँगा आपको रुठकर तो देखो, जोड़ लूँगा आपको टूटकर तो देखो। नादाँ हूँ पर इतना भी नहीं , थाम लूँगा आपको छूट कर तो देखो। लोग मोहब्बत को खुदा का नाम देते है, कोई करता है तो इल्जाम देते है। कहते है पत्थर दिल रोया नही करते, और पत्थर के रोने को झरने का नाम देते है। जो हमारे बहुत करीब है उसे हम छू नही सकते शायद इसे 'मजबूरी' कहते है,
जो हमे चाहता है उसे हम पा नही सकते शायद उसे 'नसीब' कहते है........!"
इसी 'मजबूरी' और 'नसीब' के बीच एक रिश्ता पनपता है शायद इसे "मोहोब्बत" कहते है.. . “हरिश्चंद्र उपाध्याय”