महम्मद इक़बाल - कवि, दार्शनिक तथा राजनीतिज्ञ, सर महम्मद इक़बाल का जन्म
9 नवंबर 1877 को, पंजाब के स्यालकोट में हुआ था। उन्हें अल्लामा इकबाल के नाम
से भी पुकारे जाते हैं। पराघीन भारतके मुसलमानों के लिये एक अलग राष्ट्र का भावना
उन्हीका है, जो उनके देहांत के 9 साल बाद पाकिस्तान के रूप में उभरा।

उनके दादाजी सहज राम सप्रू एक कशमीरी ब्राह्मण थे जिन्होंनें ईसलाम धर्म स्वीकार करने
के बाद नये नाम शेख़ महम्मद रफ़िक़ लिये और पंजाब के स्यालकोट में आ बसे। ये भी
कहा जाता है कि कृरीब 300 साल पहले, अल्लामा इक़बाल के कोइ पूर्वज, जो कशमीरी
पंडित थे, ईसलाम धर्म स्वीकार करके पंजाब मे आकर बस गये थे।

इक़बाल के पिताजी शेख़ नूर महम्मद का स्यालकोट में छोटा सा दर्जी का व्यैवसाय था।
उन्होंने अपने बेटों को एक धार्मिक माहौल में उर्दु, फारसी, अरबी और अंग्रेजी की शिक्षा
ग्रहण करवाई।

इसी बीच सिर्फ 15 साल के उम्र में ही उनकी शादी, मशहूर डॉक्टर खानबहादूर शेख़ अता
महम्मद के बेटी करीम बीबी के साथ हो गई। उनके एक बेटी और एक बेटा हुआ था।
दूर्भाग्य से ये शादी सुखद नहीं होने के कारण, 1916 मे शादी टूट गई।

पहले गृहशिक्षकों द्वारा घर पर ही पड़ाए जाने के बाद, स्यालकोट के स्कॉच मिशन कॉलेज
में भर्ती होकर 1892 साल में स्नातक हुए। इसके बाद लाहौर गभमैन्ट कॉलेज से मास्टर्स
डिग्री प्राप्त की। पड़ाइ चलती रही और साथ साथ ओरियंटल कॉलेज, लाहौर मे रीडर की
नौकरी मिल गई। यहाँ वे उनके शिक्षक सर टमास आर्नल्ड के छाया में आए जो इक़बाल
को पश्चीमी सभ्यता से परिचित करवाया। उन्ही के कहने पर इकबाल युरोप जाकर इंगलैंड
के कैमब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटि कॉलेज से बि.ए. का डिग्री हासिल किया।  1908
में इंगलैंड के ही लिंकनस ईन से बैरिस्टरी पास की। यहां उनके साथ एक छात्रा,
आतिया फ़ैजी के साथ मुलाकात हुई और दोनो क़रीब आए थे।

युरोप मे ही वे फारसी में लिखना शुरु किया। माना जाता है कि उन्हे ज्यादातर फारसी में
ही लिखना पसंद था क्युंकि फारसि भाषा मे वे अपने दर्शन और अच्छी तरह लिख सकते
थे और उस भाषा में दुनिया में पाठक संख्या ज्यादा था।

इंगलैंड में वह पहले बार राजनीति मे उतरे। 1906 में ऑल इंडिया मुसलिम लीग बना।
1908 मे इक़बाल को ऑल इंडिया मुसलिम लीग, ब्रिटिश चैप्टर के सभापति चुना गया।
इक़बाल स्वयं, सयेद हस्सन बिल्ग्रामी और सयेद अमीर अली के साथ बैठ कर लीग की
कनस्टिटिउसन रचना की।

कहा जाता है की वह युरोपीय दार्शनिक गेटे द्बारा प्रभावित हुए थे। राष्ट्र और धर्म अलग
अलग रास्ते पर चले, ये बात उन्हे ये नपसंद होने लगा। मौलाना रुमी के दिखाये गये
दिशा पर इसलाम धर्म और सभ्यता की अघ्यन करना शुरु कर दिये।

1930 के आसपास, धीरे धीरे उन्हे ऐसा लगने लगा कि मुसलमान लोग भारत मे हिन्दुओं
के बीच अपनी धर्म और संसकृति लेकर नहीं रह पायेंगे। उन्हे लगा की कम से कम
उत्तर-पश्चिम भारत के मुसलमान मेजौरिटि राज्यों को मिलाकर एक अलग राष्ट्र बनना
चाहिये। उन्हें लगा कि भारत के मुसलमानों के लिये यही ठिक रहेगा। यहीं से दो-राष्ट्र
भावना
(Two Nation Theory) का जन्म हुआ।

मुसलिम लीग में इक़बाल ही सबसे प्रभावशाली थे। उन्हीने 1920 के आसपास महम्मद
अली जिन्नाह को, जो उन दिनों लंडन में रह रहे थे, ख़त लिखा था भारत के मुसलमानों
को नेतृत्व देने के लिये। लेकिन उस समय जिन्नाह साहब पुरे सिक्युलर
(seculer) थे।
कॉग्रेस के साथ उनका ताल-मेल ना होने पर, 1940 के समय उन्होंने भी मुसलमानों के
लिये अलग राष्ट्र की भावना अपना लिये।

1933 में अफ़गानिस्तान और स्पेन की सफर के बाद उन्हे एक गले की अनजान बिमारी
हुआ। 1934 में वे वकालती बन्द कर दी। भोपाल क नवाब उन्हे पेनशन देना शुरु
किया था। तभी वे चौधरी नियाज अली खान के साथ दार-उल-ईसलाम ट्रस्ट
इनस्टिटिउट के काम में लगे रहे। महिनों तक बिमार रहने के बाद, 21 अप्रैल 1938 को
लाहौर में उनका निधन हो गया। उनका समाधी लाहौर कीला और बादशाही मसजिद
के बीच में हजुरी बाग में स्थित है। पाकिस्तान सरकार उसका देखरेख तथा सुरक्षा का
प्रबंध किया है।

अंग्रेज शासक उनको नाइटेड
(Knighted) कर "सर" उपाधी प्रदान किया। साहित्य़ जगत
में इक़बाल के अलावा इस सम्मान का अधिकारी केबल
गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर  ही थे।

पाकिस्तान में वे "मुफ्फकिर-ए-पाकिस्तान"
(The Thinker of Pakistan), "शायर-ए-मशरक"
(The Poet of the East), "हकीम-उल-उम्मत" (The Sage of Ummah) आदि नामों
से भी पुकारे जाते हैं। उनका जन्मदिन 9 नवम्बर पाकिस्तान में राष्ट्रीय छुट्टी मनाया जाता है।        

1905 में इक़बाल नें वह कविता प्रकाशित किया, जो उनको भारतवर्ष में अमर कर देने
वाला था! वह था "सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा"।

इस गीत को आज पाकिस्तान में गाया जाता है या नहीं, हमें मालुम नहीं, लेकिन हर
भारतवासी के होंठों पर इस गीत, शान-व-शौकत के साथ गूँजती है। राष्ट्रपिता महात्मा
गांघीजी ने 1930 में, इस गीत को गाए थे, पुनें के यरवदा जेल की बन्दी अवस्था में।
1950 में पंडित रविशंकरजी ने इस गीत को अपनी धुन से सजाया। अंतरीक्ष मे पहला
भारतीय, स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा अपनी अंतरीक्ष यात्रा के दौरान, तत्कालीन प्रधानमंत्री
श्रीमती इन्दिरा गांधी को इसी गीत के पहला लाइन सुनाये थे, ये बताने के लिये कि
अंतरीक्ष से भारतवर्ष देखने में उन्हे कैसा लग रहा था। 14 जुलाई 2009 को भारत के
जवानों ने पैरिस मे फ्रान्स के बास्तील दिवस पर पैरेड किया, इस गीत के धुन के साथ
भी। पूरे भारत में ऐसा कोई पैरेड शायद हुआ ही नहीं है, जहा "सारे जहां से अच्छा" के
धुन न बजा हो। इस गीत को सुनते ही हर भारतवासी के दिल में देशभक्ति का भावना
जाग उठते हैं।  

अल्लामा इक़बाल का जीवन सम्पूर्ण लिखना हमारे लिये सम्भव नहीं है। उनका साहित्य़
रचना विशाल है।
और जानकारी के लिये यहाँ क्लिक किजिये

लेकिन कुछ सवाल ज़रुर उठता है। एक ऐसा वतनपरस्त कवि, जिनके भावनाओं से
"सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा" जैसे कविता निकला था, उन्ही के बदलते
भावनाओं का असर कुछ साल बाद ऐसा पड़ा कि उनके वही वतन (हिन्दोस्तां) के ही
दो टुकड़े हो गये।

एक वतनपरस्त शायर के मजहबपरस्ती ही आगे चल कर उन्हीके "हिन्दोस्तां" का इतिहास
में सबसे डरावना अध्याय की सूचना की थी - देशभाग
(Partition of India)। उनके
देहान्त के बाद, उन्हीके भावनाओं तथा आदर्शों पर आगे बड़ कर, महम्मद अली जिन्नाह
के नेतृत्व में मुसलिम लीग, भारत का विभाजन मांगा। महात्मा गान्धी न चाहते हुए भी
उसे रोक नहीं पाये। शायद एक ही इनसान थे जिनके उपर महम्मद अली जिन्नाह भरोसा
कर सकते थे, लेकिन वह उस समय मौजुद न हो सके। वह थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस।
फिर जो होना था वही हुआ। हिन्दु और मुसलमान मिलाके क़रीब पन्द्रह लाख मारे गये।
करीब डेढ़ कड़ोर बेघर हो गये। पीड़ी के पीड़ी जहन्नम के जिंदगी मे बह गये। "मजहब
नहीं सिखाता आपस में बैर रखना" -- इस पंक्ति कहां छुप गया था? पुरा का पुरा मजहबी
बैरी के उपर ही भारत का विभाजन हुआ था 1947 में। इस मे कोइ शक नहीं।

इक़बाल के हिसाब से तो अपने अलग देश में मुसलमानों को सुख-चैन से रहना चाहिये
था। लेकिन ऐसा कहाँ हुआ ? सिर्फ 24 साल बाद 1971 में, पाकिस्तान टूटके एक से
दो "मुसलिम" राष्ट्र हो गये। वह भी लाखों को मौत के घाट उतारनेके बाद। कड़ोरों को
बेघर करके भारत मे भगाने के बाद।

हमें इक़बाल का "सारे जहां से अच्छा" गीत पे ज़रूर नाज़ है। लेकिन और कई गुणा
ज्यादा नाज़ है उन मुसलमानों पे जो इनके बातों में न आकर 1947 में, भारत मे रह गये
थे। इक़बाल लिखे थे ज़रुर, लेकिन उनसे कइ गुणा ज़यादा, इस गीत का हर शब्द
अपनी आत्मा में समाये थे आजाद भारत के मुसलमान, हिन्दु, सिख, ईसाई, पारसी एवं
अन्य सारे धर्मों के भारतवासी।     

लेकिन इकबाल के कविता के बिना भी तो रहा नहीं जाता! उनके राजनैतिक भावनाओं
पर सवाल ज़रूर उठते हैं लेकिन उनके कविताओं पर कोइ सवाल नहीं उठता। इसलिये
हम मिलनसागर के तरफ से उनके कविता देवनागरी मे पेश कर रहे हैं। कवि महम्मद
इक़बाल के प्रति यहि हमारा श्रद्धांजली है।

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