एक सड़क मेरे घर से निकलकर भटक गई है, ना जाने कहाँ ? और मैं उसी को खोजती आ गई हूँ इस सड़क पर खुद भटककर। चार सड़कों पर एक साथ चला नहीं जा सकता ना इसीलिए मीलों लम्बी दरार में सरक जाते प्रश्न अनिर्णीत, गंदलाते। वक्त की काई पर फिसलते हमारे पाँव मुड़ जाते मोड़ से पहले ही ढूँढते अपना अन्तिम पड़ाव। पथरीली ज़मीन पर रोपते परिचय की अलक्षित छुअन, महकती बौर की गंध में, सह जाते हम सब हवा का तमाचा क्योंकि हम अन्जाने ही हर किसी से पी लेते हैं अंतिम विदा की चाय। हथेलियौं से झाड़ते परिचय की धूल उचकाते कंधे मसल देते बेतरतीब इरादे, कोरे काग़ज की खामोशी में। कैद करते अंधी दूरियाँ - उलिच देते समय पर। ठहरकर लम्बे ठौर में ठिठक जाते। चुकाते मुआवज़ा किश्तो
आप क्या करें ? जी बेहत उचार लगता है किसी से करें कोई अपनी बात। पर शब्दों के बीच उगता मज़ा गड्डमड्ड बेमतलब होने लगता है ! यूँ बोलने के लिए कुछ भी बोल लो, कोई फर्क नहीं पड़ता। शायद किसी की किसी में कोई दिलचस्पी बची नहीं या यह मेरा भ्रम है। क्यौं मेरे शब्द दूसरे तक पहुंचने से पहले तोड़ने लगते हैं दम ? लोग पूछते हैं,- कैसे हैं ? मैं खुश कुछ बोलूँ इससे पहले वे आगे निकल जाते हैं दूसरों से पूछने यही सवाल। ******** .उपर
पहले सब कुछ भरा भरा सा लगता जैसे सर्दी का खिला हुआ दिन जो समे ले सबको अपनी बाहों में। और - अब मन युँ खाली ज्युँ तपती मरुभूमि का सन्नाटा। यह खालीपन निगलने लगता है मुझे। यूँ करन के लिए या यूँ कहे दिल बहलाने को कई काम किए जा सकते हैं। मसलन सुनना खबरें पर खबरें और खाली करें तो क्या किया जाए ? सो लिया जाए- घूम लिया जाए- या मारी जाएँ ढेर सारी गप्पें। पर उन बातों के दौरान एक ऊब उगने लगती है। मुझे सन्देह होता है अपने पर क्योंकि बाकी लोग दिखते हैं बहुत खुश- भरपूर इज़हार करते हुए खुशी का।