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बहती नदी के सुनहरे लहरों ने
आवाज दिया था हमे,
कसूर हमारी थी कि हमने
कानो मे उंगली रखा था,
कसूर हमारी कि हमने
ना सुनने की वायदा किया है किसी से ।
और लहरें हंसी के आड़ में
खून छिपाकर बिखर गए।
बसन्ती हवा का झौंका राह चलते
बुला गई ।
फूल अपने विश्वासी बृंत पर
आखों को ईशारा किया,
वो तो हमारी कसूर थी
कि हमने उन्हे देखा नही ;
कसूर हमारा कि हमने
न-देखने का वायदा किया किसी से ।
बसन्ती हवा अपने दामन में
फूलों के हजारों बिखरे पंखड़ियां ढके --
समेटकर उसकी रंगीन दुखों को
बहती चली गई।
ये हमारी ही कसूर थी ।

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शर्मिष्ठा सेन की कविता
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