कवि सुरेश बिश्वासका जन्म अखंड भारत का, अखंड बंगाल, का ढाका जीला का, नारायणगंज उपजीला का, जयपाड़ा गाँव में हुआ था। पिता कालीचरण बिश्वास तथा माता अलकाराणी बिश्वास। उनके दादा बलाइ बिश्वास गाँव के जानेमाने व्याक्ति थे।
उनके पिता शैशव में ही दुसरी शादी कर लिये थे जमिरुन बिबि नाम के एक मुसलमान औरत के साथ। फलस्वरूप उनके दादाजी ने उनके पिता को घर से निकाल दिया था। अपनी दुसरी बिबि और छोटे बेटा सुरेश को लेकर पिताजी पश्चिम बंगाल में आकर 24-परगणा जीले के काँचड़ापाड़ा शहर में रहने लगे।
यहां पर नन्हा सुरेश का नया नाम रखा गया "फकीर"। उन्हे मालुम ही न था कि उनका असली नाम "सुरेश" था और उनका माता जमिरुन बिबि नही थी। देशभाग के बाद पूर्वी पाकिस्तान से उनका असली बड़ा भाई आकर उन्हे ये सब बताया। उन दिनो परिवार का हालत इतना खराब हो चुका था कि छोटे सुरेश, दुध बेचकर गुजारा करने लगा। लेकिन वे उस समय से ही संगीत प्रेमी हो चुके थे। काँचड़ापाड़ा में उन दिनो मंजूकुमार रायचौधुरी साहब और उनके पिता से सुरेश संगीत शिश्रा का प्रथम पाठ लिया था।
1952-53 साल में ही एक आट साल की लड़की राबेया खातुन के साथ उनका बालविवाह कर दिया गया। उन्होंने सोचा था की ये लड़की शायद खेलने का साथी है ! असलियत पता चलने के बाद उन्होने घर से भाग निकला। बिहार के जामालपूर में आकर अली मीर खाँ साहब के घर में पनाह मिली और उनके शास्त्रीय संगीत शिक्षा आरम्भ हुआ।
मुंगेर में एक पाकिस्तानी उस्ताद से उसने तालिम ली। उस्तादजी पाकिस्तान लौट जाने के बाद मीनाक्षी बाई नामके एक बाइजी के पास तालिम लेना शुरु किया। मीनाक्षी बाई लखनौ (या इलाहाबाद) से मुंगेर आई हुई थी। वे इस किशोर से प्रेम करने लगी थी। एक दिन सुरेश को बोली “तुम मुझे एक पैसे से खरीद लो”। सरल मन का सुरेश वही किया। बाद मे पता चला कि बाईजीयों के समाज मे ये एक प्रकार का शादी का रीति है। पता चलने के बाद उन्हे यह अच्छा न लगा और एक सुबह मीनाक्षीजी से मनमानी करके घर से निकल पड़े। शाम को लैटे तो पता चला कि मीनाक्षी जी भी दुखी होकर हमेशा के लिये घर छोड़ कर चल पड़ी थी। मीनाक्षी बाई का बनारस के ठिकाने पर जाकर भी उन्हे नहीं मिला। जिंदगी में उनसे और कभी भी न मिल पाये थे। कुछ समय वे काशी के घाट पर एक अंधा गायक से भजन सिखा और अंत मे दुखी होकर काँचड़ापाड़ा अपने घर वापस लौट आये। मीनाक्षी बाई का जुदाई, घर का हालत, सब मिलाकर वे इतना दुखी हो गये कि एक दिन रेलगाड़ी के नीचे आत्महत्या की कोशिश कर बैठे। ऐन मौके पर उन दिनों के गण आन्दोलन के कार्यकर्ता विश्वनाथ मुखर्जी ने उन्हे बचा लिया। विश्वनाथ मुखर्जी ने उन्हे कलकता मे अपने घर में रखा और वहाँ सुरेशजी का मुलाकात, गणनाट्य संघ के ज्ञानेश मुखर्जी, शम्भु भट्टाचार्य, बीरेन मुखर्जी प्रमुख व्यक्तित्वों के साथ हुआ। उनके उत्साह से सुरेशजी लोकसंगीत गाना शुरु किया।
पचास के दशक में वे गणनाट्य संघ के विभिन्न दलों के साथ गाँव गाँव घुमकर गणसंगीत गाया करते थे। इसी बीच उनके शादी के पश्चात घर-गृहस्थी का पैसा जुटाने के लिये बहुत सारे विचित्र काम करना पड़ा था, जैसे रेल का खलासी, कुली, कागज का ठोंगा बेचना, मुरगी और अंडे बेचना, हॉकरी एवं बच्चों को पड़ाना।
इसी समय कोलकाता मे खाद्य आन्दोलन शुरु हुआ। 31 जुलाई 1959 को एक जुलूस पर लाठी चार्ज के दौरान 80 लोग मारे गये। तभी से वे अपने गीतों से तीव्र प्रतिवाद करना शुरु किया। शुरु शुरु में वे अपने गीत और संगीत सलिल चौधुरी के आधार पर करते थे, जिनकी वे बहुत कदर किया करते थे।
साठ के दशक में वे “मोतिलाल दास सम्प्रदाय” के नाम से आकाशवाणी कलकत्ता से संगीत का कार्यक्रम भी किया करते थे।
1966 साल में फिर से खाद्य संकट प्रकट होने के बाद पश्चिम बंगाल मे खाद्य आन्दोलन मे शामिल हो गये और अपने गीतों से प्रतिवाद करने लगे। 1967 साल में नकसालबाड़ी आन्दोलन से भी प्रभावित हुए और गीत रचना करने लगे।
12 डिसेम्बर 1998 को भारत के मानवतावादी समिति के तरफ से उनको “Humanist Award” से सम्मानित किया गया।
उनके आखरी दिनों उन्होंने कालीघाट के एक बस्ती में अपने परिवार के साथ बहुत ही दुर्दशाग्रस्थ अवस्था मे गुज़ारा। कुछ सहयोद्धा दोस्त उन्हे उनदिनों मदद करने की कौशिश की लेकिन जिन राजनैतिक दलों के लिये, भुखे प्यासे रहकर भी, वे गीत रचना करते थे, उन्हे दिखाई नहीं पड़ा !
उनका गीत संख्या 300 के उपर है, लेकिन आज सिर्फ कुछ ही बचा है। हिन्दी एवं बंगला, दोनो भाषा में ही वे गीत रचना करते थे।
कवि सुरेश बिश्वास के प्रति यहि हमारा श्रद्धांजली है।
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