दोस्त फिर मिलेंगे

कहीं न कहीं
इस गोलाकार पृथ्वी पर
किसी न किसी जगह में
जंहा भी हो--मोची पारा में,मेहतर पट्टी में
या ग्वाले के कटा हुआ दूध
छेना बनते देख कर
तुम जब हँसोगे,
हमारी मुलाकात होगी।
जिसे आच्छा लगता है
वह चुम्बक के तरह खींचता रहता है।
फुलों की इशारों में
पंख फैला कर
हवा के कानों में
कौन भर देता है
गुण गुण गानों का एहसास!
रात के अबेश में सुन पाओगे
झींगुरों की थिरकती हुई तान।
कहीं तो तुम्हें देखा--
मन के अंगन में देखा
अभी भी याद है--
छुंता हुआ वह मुह पर
एक ही तरह मनुष्य का चेहरा।
पहचानता  हूँ तुम्हें
वही  स्थिर सी तस्बीर में
सुवह के फुल जेसे
बचपन में, कभी दौरते हुए मन में
छुं लेता हूँ फूलों के गुच्छ--
वह फूलदान।
समुन्द्र के किनारे से चुनता हूँ
शंख, पत्थर।
आज भी वह नाव
कटा हुआ चाँद सा
मझ दरिया पर भासति रहती है।
याद है तुम ने रोया था,
वह अशुयों का दाग
आज भी बसा है तुम्हारे गालों पर।
सुख दुःख के छत्र छाये में
हसंता हूँ, रोता हूँ, झगरता हूँ।
दोस्त, फीर मुलाकात होगी,
फीर वापस आना है,जानता हूँ
सौ बरस पहले के वह 'दीलू'
आज भी मुझे पहचानेगा।
वह कदम्ब का पेर,
वह फैला हुआ मादकता--
जिस पर आज भी
सजग रहा तुम्हारा नाक--
ये सब कहीं नहीं जायेंगे
जो जाता है, वह वापस भी आता है,
जाने आने के संसार में
आने का आशवस्त मिले तो
जनता हूँ, फीर तुम मिलोगे!


.              *************  
.                                उपर



मिलनसागर
कवि तापसकिरण राय का कविता
कोइ भि कविता पर क्लिक् करते हि वह आपके सामने आ जायगा
*
जी रहा हूँ जीन्देगी  
         
वही फटी पुरानी यादें
जली हुई बासी रोटी
वषों का मैला बिछौना
दिन भर का तपा हुआ
थका मदा शरीर
और बरसात में भीगा हुआ
कौवों जेसा हाल लेकर
गुजार रहा हूँ जीन्दगी,

वहीं काली रातें
टूटी-फूटी नींद में
ज्यादा से ज्यादा
अच्छा खाने का स्वप्न ,
फिर भी
भिक्षा नहीं माँग रहा हूँ,
अपना खून पसीना
बहा रहा हूँ,
गांव को बना रहा हूँ शहर
जंगल को बना रहा हूँ खेत
तुम्हारे स्वप्नों को
साकार करने के लिए
पीट रहा हूँ हथौड़ा  

देखो  उपरवाले !
रेत में दबा हुया
घर है हमारा
भरम में भटकता हुया
जीवन है हमारा
पानी से तरसता हुया
परिबार है हमारा
जीबन संग्राम में
लड़ता हुया चहेरा है हमारा.

सबकुछ देख कर
तुम में कब तक
न्याय भावना का उदय होगा
कब तक अपना हाथ
बड़ाने का संकल्प लोगे
इसी के इंतजार में
आज की जिन्दगी
जी रहा हूँ i
  
                  रचना काल -12.01.1991

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
मै मृत हूँ, मै जीवीत हूँ
               
टूटी हुई नींद की रात
कुत्तोके शांत रहने की बेला
एक जरतग्रब भाबना
निद्रा और जागरण के बीच
दो हम की स्थिरता।
सामने रहा असमाप्त राज पथ--
चलमान अटूट एक जीवन ग्रन्थि।
क्या मैं कहीं रुका हूँ!
टूटे हुए दर्पण मैं--
मैं, मैं, मैं ही हूँ।
फटे इतिहास के पन्ना
प्रबाहमान घटना का श्रोत
कभी खत्म न होने के धागे मैं  
पतंग के आकाश छुंने का स्पर्धा।
एकाकार सुख दुःख स्वप्न
जीवन से छुंता एक जीवन
ढुंनता हुआ सप्तलोक की ठिकाना।
शांत शुद्ध अजर अमर  
मैं मृत हूँ ,मैं जीवीत हूँ ।  

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
कलम और तलवार
            
कलम से पुकार कर कहती तलवार,
'तू कलम भोली बेचारी बहुत ही लाचार'।
'शक्ति का प्रतीक हूँ मैं,मैं हूँ तलवार
कितनी चमकती हूँ मैं,झलकती बार-बार'।
'साहसी का साथी हूँ मैं, मैं हूँ बहुत धार,
शत्रु को मैं सजा देती,कटती गला हजार'।
'जेब मैं तू छिपी रहती, तू है डरपोक,
शर्मिली सी लगती तुझे ,जेंसी मनाती शोक!'
'कलम मुस्कुरा कर कहे,'तू हें अहंकारी,
मित्र को तू शत्रु बनाती--तू हिंसा का पुजारी।'
'मेरा लेख ला सकता हें बिद्द्रोही चिंगारी,
देश हित मैं पलट सकता शासन सत्ता सारी।'
'मेरा लेख ही होती वाणी,मेरा लेख आदेश,
मैं ही होती मौत का प्रमाण,मैं शुरू,मैं शेष'।

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
आज की सीता
                                  
फट के धरती                 युग युग से सह रही सीता    
निकल अती है                समाज का
आज की लांछित              यह अत्याचार,
सीता,                        यंहा वंहा चेहरे मैं  
लथपथ शरीर                 चिमट गयी है
पसीनो से भीगी               दह्य घाव की दाग
अपने ही घर मै               मन बना मरुस्थल
है अपहृता,                   सुख गया
पती बना रावण               मन का अनुराग।
बाकी सब उसके              समाज की लाखों सीता
बंशधर,                      पार कर आयीं
राज प्रसाद बना               अनेक अग्निपरीक्षा।  
बंदी गृह,                     दो हाथ फैला कर   
घर संसार                     मांग रही आज
खंडहर?                     नारी-मुक्ति की भीक्षा II   
आशुयों से भरी आँखे                           
बनी
नफरत की दीवार                               


रचना काल 13.10.1991

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
में ने चाँद को लिपटा लिया        
                 
में ने आकाश को रख लिया
अपने सीने में,
में ने हरी-भरी घास को
बिछा लिया
अपने दिल में,
में ने काली रात को छिपा लिया
ढलते काले बालो में,
में ने पूनम रात में
चाँद को लिपटा लिया
अपने भाल में।
दुश्मन दुनिया को में ने ढक लिया
अपने पलकों के
छांव में,
में ने मुहब्बत को रख लिया
अपने ह्रिदय की हर धरकन में।  
अपने दिल में ई                                   



रचना काल -23.01.1992 व स्थान - जबलपुर (एम्.पि.)

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
राज करेगी नारी
                                  
जनसंख्या के हिसाब से               बिना नौकरी पुरुषों को
घट रही हें नारी,                     पहननी परेगी साड़ी,
एसी बात आगे अगर                 सारा जीवन लेनी पड़ेगी,
चलती रही जारी                      रसोई की जिम्मेदारी.

तो,वह दिन दूर नहीं हें                उठते-बेठते नारी उखाड़ेगी          
नारी की जब होगी पल्ला भरी,         पुरुषों की दाड़ी,
अपने ही लापरवाही से                तानके सीना,'शान' बनेगी,
पुरुष,बनेगा अनाड़ी.                   राज करेगी नारी II

पुरुष बनेगा बन्दा,                                 
बनेगा वह भिखारी,                                       
शुन्य होगी जेब की कौड़ी,                         
स्त्रीयों की होगी पारी।

( रचना काल : 23,01.1992  व स्थान :जबलपुर(एम्.पि.)


.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
चाँद को तुमने दर्पण बनाया  
                        
चाँद को तुमने दर्पण बनाया
मन को बनाया अनमोल मोती,
रसीले शरीर के श्रृंगार में
बिखार दी तुमने प्रेमकी ज्योति।

रंगीन रातों की रौनक में
मुझे बहुत सताती है,
गुजरते हर पल पल में
याद तुम्हारी आती है।

तुम्हारे स्वासों की
महकती हवाओं में
तुहारे कदमों  की
अहिस्ता आहटों में
झंकृत हो उठते
मेरे मन के सितारें,
अगर मिले तुम्हारे इशारे,
मै सब कुछ  कर दूंगा अर्पण
मेरे तन-मन-धन सारे II    

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
हम में है रेत का धर्म
         
कण कण में जुड़ता रिश्ता
फ़ैल जाता रेगीस्थान,
कण कण में बन जाता है
बिस्तृत तट भूमि,
सागर आकर उसे
करता आलिंगन,
नदी आके चूमती
वही क्षुद्राती क्षुद्र अंश
रचा लेता है
नगर सभ्यता का
आकाश चुम्बी सौध,
कण कण रेत में है
अजीब सी शक्ति सृजन,
तोड़ने वाला धर्म ले कर
कैसे जोड़ रहा है रिश्ते नाते,
सामान्य अनगिनत है हम,
दबे है हर शंकट के नीचे,
फीर भी
हम में है रेत का धर्म
हम ही गड़े है
सभ्यता का बुनियाद--
हर निर्माण में
मेहनत की छाप,
हर कलाकारी में
हमारी मुद्रा का ही
है प्रतिबिम्ब,
हम में शक्ति है असीम,
हम चाहे
सब कुछ तोड़ सकते है,
सब कुछ चाहे
हम जोड़ सकते है--
हर  रिश्ते के पोर पोर में
इर्द गिर्द जुड़े है हम सब।


.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
खंडित कुरुक्षेत्र
             
सब कुछ
तहस-नहस कर देने वाला
तूफान भी टल
जाता है,
सोच की खंड दीवारें भी
टूट-टूट कर
चूर चूर होकर
कैसे
खंडहर सी बन जाती हें।
यह
कैसा खेल है--
मस्जित को मन्दिर
या,
मन्दिर को मस्जित बनाना?
मन्दिर मस्जित या मंडल
के नाम पर
देश और समाज को
तोड़ने का मार्ग अपनाना।
सोचो
तोड़ने का धर्म
कितना सहज है
जोड़ने का धर्म
कितना कठिन,
हम सब टूटते-टूटते
बंट गये
जाति धर्म क्षत्रों में
फ़ैल गये।

आज के खंडित कुरुक्षेत्र
गांव-गांव में,शहर-शहर में
बंट गये।
सोचो
भूख जांहा सत्य है,
वंहा सोच का धर्माघात
अपनी आत्मा का रक्तपात
क्यों  करवाते है?
क्यों
अपने पंजों को
भिगवाते हें
ताजे खुनके धब्बों से?

मत बहने दो
उन बहकती हवायों को
जिन मे छीपे है
चक्रवाती षड्यंत्र,
अपने स्वार्थ को अपनाने
और मत छोडो
मीठी छुरी से बचन,
तुम्हारी कूट मन्त्रणा से
हम
अपने आप से लड़ रहे है,
हम अपनी आत्मा को
अपमानित कर रहे हें
और  
अपना ही लहू
आप पी रहे हें II

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
आवरण
         
शरीर के
आवरण को ओढ़ के
सक्रिय 'में' एक सत्ता
किस प्रकार
देखो
बैठा हूँ।
अपने अंदर में
जीबन भर अपने को
आईने में बारबार
देख कर भी
पहचान नहीं पता हूँ।
क्या स्थिरता है की
हजारों तस्बीरों में से
निश्चित ही
हम स्वयं को
ढूंड पायेंगे!
क्या भरोसा है की
अपने  को
सामने
देख कर भी
अपने अस्तित्व को
स्वीकृति दे सकूंगा?
स्वयं को
न पहचानने की  दैन्यता
हमें बहुत पीड़ा देती है।

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
अरण्य का रुदन
                 
धरती के गोद में पले प्रकृति से परिबृत
लता गुल्मं पेर।
एकांत में पडी रहती बे प्रतिबादहीन सत्ता
पृथ्वी की मिट्टी को जकडते हुए खड़े है
वे अहिंसा के प्रतीक।
धरती के मिट्टी को उन्होंने कीया है धारण ,
शुष्क भूमि में पानी को उन्होंने किया है संचयन,
जीने के लिए सांसो में भर दिया संजीबनी अक्सिजेन,
दूषित हवा धुल धुयाओ से प्रदूषित
पृथ्वी को कीया है दोष मुक्त,
पत्तो के क्लोरोफिल से स्वच्छ दृष्टी दान ,
अरण्य के अलोरण से पिघल जाता
असमान में तैरता हुआ  बादल,
बरसता वह अमृत बर्षण।
रातो के अरण्य में सुनो पत्र मर्मर ध्वनि में
बृक्ष के करुण रुदन,सिसकती हवा में धेर्यता से शुनो
उन्ही के स्थलित दीर्घ स्वास--उन्ही की ब्याप्त प्रतिबदी
चैतन्यमय पद चरना को,
अस्पस्ट सुबह में देखो --
उन्ही की अखो में जमे कुहरायित अश्रुकण,
अनुभूति की सुश्मता में परखो बहते संबेदनशील वो
रक्त धमनी के  कल्लोलित श्रोतो ध्वनि को।

चहकती चिड़ियो के शब्द मुखर चहलपहल
अरण्य में मचा देती जीबन की हलचल।
एक दिन आता एह कातिल जल्हाद
उसके हाथो में ललकती गुप्त कुल्हारी,
छेड़ देती उन्ही के जंघा देश।
गिर पड़ती छिन्नमूल वे खंडित अबयब।
कातर यन्त्रणा से वे चीखते तरफ्ते छटफटते
हिंसक खर्ग काटकर टुकड़े टुकड़े कर देता
एक एक अंग प्रतंग।
फीर आरी से चीरा जाता उन्हीका सीना
यह है आज की सभ्यता का निसंस बर्बरता।

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
यह कौन सा जानवर है?
                    
गलती पर गलती करता पांव
इंसानियत को कुचल रहा है
स्वार्थ की तुला में
हर रिश्ते नाते को तौलने वाला--
यह कौन सा जानवर है?

रात की मुठ्ठी से चुरा कर
छीन लेता है नारी की लज्जा,
जो स्वार्थ की इमारत तले
गाड़ देता है मनुष्यत्व
      का कंकाल,
जो अपने लिए जूंथ लेता है
धर्मान्धता की दीवार--
यह को सा जानवर है?

हवा में बह रही है बदबू
किसी दूर की चीख में
सुनो,तुम्हारी आवाज जेसी आवाज,
देखो,  तुम जेसे हिंस्र चहेरे में
यह कौन सा जानवर है?

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
सबसे बड़ी बीमारी है भूख
               
चौक उठे अनभिज्ञ शिशु
देख कर देब मंदिर के अंगन में
लेटा हुआ छिन्न छाग मुंड,
रक्ताक्त खड़ा है कलुषित युप-काष्ठा
तथागत समाज के सामने
एक अनंत जिज्ञासा --
क्या अहिंसा परम धर्म है?
आदमी सा शरीर धारण कर
वही जाने दासत्य जीवन का मर्म
जिनके शरीर में है उतपीडक घाव
स्वार्थ के द्वार द्वार भूखे नंगे
वे संख्यातीत कंगाल.
उनके पास मन प्राण शरीर का
कोई महत्त नहीं है,
उनके पास सबसे बड़ी जो चाहत है
वह है खाद्य बस्तु।
उनका सबसे बड़ा जो शत्रु है
व है पेट।
सबसे बड़ी जो बीमारी है
बह है भूख।

हे रक्षक के दल,हे भक्षक के दल !
धर्म धारक,धर्म पालक,धर्मावतार!
भूख मिटाने के लिए देखो
उनके मुह में तुम्हारे रटे रटाये
जय-गान.
तुम्हारे किराये पर
उनके हाथों की मुट्ठी में पकडाए गये
फैयराते हुए तुम्हारे झंडे.
तुहारे मन्त्र को बरबड़ाते हुए
वे पार कर रहे है एतिहासिक राजपथ।
कभी मन्दिर को मस्जित बनाने
कभी मस्जित को मन्दिर,
वे अपनी छातीयों को छलनी करवाने
गोलियों के छरों में खड़ें हें।
उस से पूछो
की अपने अंतिम समय पर भी
वे क्या बड़बड़ा रहे है।
उन से पूछो उनका धर्म क्या है?
वे मरते वक्त जो अंतिम बाक्य कहेंगे
वह है--
सबसे बड़ा धर्म है पेट पलना।
वे आदमी हें अज्ञात वेनाम
सागर नदीयों की
उन्हें मिली बहती हुई लाशों के ढेर में
बिन जन्म-कुंडली वे जन्म लेते हें
मृतकों के ढेर में से वे रह जाते हें अशिनाख्त।
उनके लिए कौन है जो चुकायेंगे जुर्माना?


.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*
मन की सीमा रेखा
         
असीम
आकाश में
मन की
अंतहीन गतिमयता।
कर्म हीन क्ल्पना में
वह खो दिया
जीबन का अधिकांश।
जीबन भर
वह पागल
खोंजता रहा
परश पत्थर।
कभी
सागर की
गहराई में
अटक जाता
मन।
सीप के सीने में
छीप रही जो
अनमोल मोती,
वही तक
सीमित रही
मन की
सीमा रेखा II  

.              *************  
.                         उपर   




मिलनसागर
*