मीरा बाई – का जन्म सन् 1498 अथवा 1512 में मेड़तिया राठौर वंश मे, पिता
रत्नसिंह का केन्द्र कुड़की नामक गांव में हुआ था। बचपन से ही वह कृष्ण भगवान
की दिवानी हो चुकी थी और उनको वोह अपने पति मानने लगी थी। सिर्फ बारह साल
का उम्र में उनका विवाह रचा दिया गया, चितौर नरेश राणा सांगा के दुसरा पुत्र राणा
भोझराज के साथ।
राणा सांगा जोधपुर के राठौर परिवार मे राजनैतिक फूट डालने के लिये यह विवाह
रचाया था। आनेवाले दिनों में उनका नाति माहाराणा प्रताप ने सम्राट अकबर के साथ
हल्दिघाटी के युद्ध के लिये इतिहास में अमर बन गये। राणा प्रताप, राणाभोज का
सबसे छोटा भाई राणा उदय सिंह का पुत्र थे। तो रिश्ते में मीराबाई, राणा प्रताप के
चाची लगती थी।
शादी के बाद ससुराल मे अपना कृष्ण का मूर्ती ले गई और उस सुराल के किसी और
देवता को पूजा करने से इनकार कर दिया। इस बात से क्रोधित होकर सास ने उनको
एकान्तवास का दंड दिया। एकान्तवास के चार साल बाद पति राणा भोज का मृत्यु
हो जाने पर मीरा ने सती होने पर साफ मना कर दिया, यह कहके:-
मीरा के रंग लाग्यो हो नाम हरि, और रंग अटकी परी।
गिरघर गास्यां सती न होस्यां, मन मोह्यो घननामी ।।
राणा विक्रमादित्य ने एकाघिक शड़यन्त्र रचा मीराबाई को खत्म करने के लिये।
उनके पास जन्माष्टमी की भेंट के नाम पर विषधर नाग भेजा, चरणामृत के नाम पर
विष का प्याला भेजा। परन्तु मीरा हर बार बच निकली।
इसके बाद मीराबाई चितौर छोड़कर मेड़ता, अजमेर, पुष्कर, वृन्दावन में कुछ दिन
बीताकर द्वारका में रणछोड़जी के मन्दिर में रहने लगी उनके बचपन के सखी ललिता
के साथ।
मीरा की अद्भुत भक्ति-भावना तथा उनके अलौकिक सौन्दर्य की गूंज, उनके लोकप्रिय
भजनों के साथ साथ हिन्दोस्तान के कोने कोने में ही नहीं बल्कि तत्कालीन मुगल
सम्राट जलालउद्दीन महम्मद अकबर के कानो तक पहुंच चुकी थी। अकबर के उनके
सभासद तथा संगीतज्ञ उस्ताद तानसेन के सुरीले कंठ से मीरा के कई भजन भी सुने
थे। मीरा के रूप तथा कोकिल-कंठ की महीमा भी जाने थे। इसके बाद अकबर का
मन मीराबाई से मिलने के लिये लालायित हो उठा। तानसेन को साथ लेकर वे मीरा
से मिलने के लिये गुजरात के द्वारका में रणछोड़जी के मन्दिर जा पहुंचे।
मीराबाई नें अकबर और तानसेन को आदरपूर्वक बैठाया और भोग प्रसाद दिया।
मीराबाई के पुछनें पर तानसेन ने उन्हे “जोगी मत जा . . .” भजन गाने के लिये
अनुरोध किया। भजन के अन्त में तानसेन भी मीराबाई के साथ गले मिलाया।
सम्राट अकबर सुनकर खुशी से झूम उठे थे।
राणा विक्रमादित्य के कान तक यह खबर पहूंचते ही वे डर गये और मीरा को वापस
घर लौटने के लिये राज पुरोहित के नेतृत्व में ब्राह्मणों का एक दल भेजा द्वारका में।
लेकिन मीराबाई ना मानी। तब ब्राह्मणो ने आमरण अनशन शुरु कर दिया रणछोड़जी
के मन्दिर के बाहरी प्रांगण में बनी अतिथिशाला में।
बहुत कोशीश करने पर भी ब्राह्मणों ने कुछ भी खाने को अस्वीकार कर दिया। अब
मीरा धर्म-संकट में पड़ गई। अगर वह वापस न गयी और ये लोग अगर दम तोड़
दिये तो उनके माथे पर ब्रह्म-हत्या का पाप लगेगा।
कहा जाता है कि इस घटना के उपरान्त मीराबाई ने अपने गिरधर-नागर से मिलने के
लिये समुन्दर में आत्म-विसर्जन दे दिया। उनका देहावशेष मिला नहीं। कहावत ये
भी है कि वे रणछोड़जी के मूर्ति में सशरीर समा गई।
इस प्रकार हिन्दी भाषा का सर्वप्रथम कवियत्री मीराबाई का जीवन का अन्त हुआ।
मीराबाई इतिहास के एक ऐसे समय पर आई थी जब और भी कई महापुरुषों का यहाँ
आना हुआ था, जैसे तुलसीदास, परमपुरुष श्रीचैतन्य के शिष्य, बृन्दावन के रूप (जीव)
गोस्वामी प्रमूख। मीराबाई के साथ इनसबका मुलाकात या पत्रालाप भी हुआ था।
तुलसीदास और मीराबाई के पत्र हम यहां पेश कर रहे हैं।
मिलनसागर में कवियत्री मीराबाई का भजन प्रकाशित कर बहुत आनन्दित हुए हैं।
आभार -
सः सुदर्शन चोपड़ा, मीरा परिचय तथा रचनाएं
www.amazingudaipur.com/
मिलनसागर में मीराबाई का पन्ना . . .
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इस पन्ना का पहला प्रकाशन - 2005
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