वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ

फ़ुरसत-ए-कारोबार-ए-शौख किसे
ज़ौक़-ए-नज़ारा-ए-जमाल कहाँ

दिल तो दिल वो दिमाग़ भी न रहा
शोर-ए-सौदा-ए-ख़त-ओ-ख़ाल कहाँ

थी वो इक शख्स के तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ

ऐसा आसाँ नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ

हमसे छूटा क़िमारख़ाना-ए-इश्क़
वाँ जो जायेँ गिरह में माल कहाँ

फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ

मुज़म्मिल हो गये क़ुवा "ग़ालिब"
वो अनासिर में ऐतदाल कहाँ

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मिर्ज़ा ग़ालिब का कविता
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ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है

ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो ख़मोश है

ना मुज़्दा-ए-विसाल न नज़्ज़ारा-ए-जमाल
मुद्दत हुई कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश है

मै ने किया है हुस्न-ए-ख़ुदआर को बेहिजाब
अए शौक़ याँ इजाज़त-ए-तस्लीम-ए-होश है

गौहर को इक्द-ए-गर्दन-ए-ख़ुबाँ में देखना
क्या औज पर सितारा-ए-गौहरफ़रोश है

दीदार, वादा, हौसला, साक़ी, निगाह-ए-मस्त
बज़्म-ए-ख़याल मैकदा-ए-बेख़रोश है

अए ताज़ा वारिदन-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल
ज़िंहार गर तुम्हें हवस-ए-न-ओ-नोश है

देखो मुझे जो दीदा-ए-इबरतनिगाह हो
मेरी सुनो जो गोश-ए-नसीहतनियोश है

साक़ी बजल्वा दुश्मन-ए-इमाँ-ओ-आगही
मुतरिब बनग़मा रहज़न-ए-तम्कीन-ओ-होश है

या शब को देखते थे कि हर गोशा-ए-बिसात
दामान-ए-बाग़बाँ-ओ-कफ़-ए-गुलफ़रोश है

लुत्फ़-ए-ख़ीराम-ए-साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए-सदा-ए-चंग
ये जन्नत-ए-निगाह वो फ़िर्दौस-ए-गोश है

य सुभ दम जो देखीये आकर तो बज़्म में
ना वो सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है

दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
इक शम्मा रह गई है सो वो भी ख़मोश है

आते हैं ग़ैब से ये मज़ामी ख़याल में
"ग़ालिब", सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है

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फिर कुछ इस दिल को बेक़रारी है

फिर कुछ इस दिल को बेक़रारी है
सीना ज़ोया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है

फिर जिगर खोदने लगा नाख़ुन
आमद-ए-फ़स्ल-ए-लालाकारी है

क़िब्ला-ए-मक़्सद-ए-निगाह-ए-नियाज़
फिर वही पर्दा-ए-अम्मारी है

चश्म-ए-दल्लल-ए-जिन्स-ए-रुसवाई
दिल ख़रीदार-ए-ज़ौक़-ए-ख़्वारी है

वही सदरन्ग नाला फ़र्साई
वही सदगूना अश्क़बारी है

दिल हवा-ए-ख़िराम-ए-नाज़ से फिर
महश्रिस्ताँ-ए-बेक़रारी है

जलवा फिर अर्ज़-ए-नाज़ करता है
रोज़-ए-बाज़ार-ए-जाँसुपारी है

फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है

फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़
गर्म बाज़ार-ए-फ़ौजदारी है

हो रहा है जहाँ में अँधेर
ज़ुल्फ़ की फिर सरिशतादारी है

फिर दिया पारा-ए-जिगर ने सवाल
एक फ़रियाद-ओ-आह-ओ-ज़ारी है

फिर हुए हैं गवाह-ए-इश्क़ तलब
अश्क़बारी का हुकुमज़ारी है

दिल-ओ-मिज़्श्गाँ का जो मुक़दमा था
आज फिर उस की रूबक़ारी है

बेख़ुदी बेसबब नहीं "ग़ालिब"
कुछ तो है जिस की पर्दादारी है

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आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है


आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है

देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले
नश्शा बअन्दाज़-ए-ख़ुमार नहीं है

गिरिया निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को
हाये! कि रोने पे इख़्तियार नहीं है

हम से अबस है गुमान-ए-रनजिश-ए-ख़ातिर
ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुब्बार नहीं है

दिल से उठा लुत्फे-जल्वाहा-ए-म'आनी
ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है

क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे
वाये! अगर अहद उस्तवार नहीं है

तू ने क़सम मैकशी की खाई है "ग़ालिब"
तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है

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आमों की तारीफ़ में

हाँ दिल-ए-दर्दमंद ज़म-ज़मा साज़
क्यूँ न खोले दर-ए-ख़ज़िना-ए-राज़

ख़ामे का सफ़्हे पर रवाँ होना
शाख़-ए-गुल का है गुल-फ़िशाँ होना

मुझ से क्या पूछता है क्या लिखिये
नुक़्ता हाये ख़िरदफ़िशाँ लिखिये

बारे, आमों का कुछ बयाँ हो जाये
ख़ामा नख़्ले रतबफ़िशाँ हो जाये

आम का कौन मर्द-ए-मैदाँ है
समर-ओ-शाख़, गुवे-ओ-चौगाँ है

ताक के जी में क्यूँ रहे अर्माँ
आये, ये गुवे और ये मैदाँ!

आम के आगे पेश जावे ख़ाक
फोड़ता है जले फफोले ताक

न चला जब किसी तरह मक़दूर
बादा-ए-नाब बन गया अंगूर

ये भी नाचार जी का खोना है
शर्म से पानी पानी होना है

मुझसे पूछो, तुम्हें ख़बर क्या है
आम के आगे नेशकर क्या है

न गुल उस में न शाख़-ओ-बर्ग न बार
जब ख़िज़ाँ आये तब हो उस की बहार

और दौड़ाईए क़यास कहाँ
जान-ए-शीरीँ में ये मिठास कहाँ

जान में होती गर ये शीरीनी
'कोहकन' बावजूद-ए-ग़मगीनी

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मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में


मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में

कब से हूँ क्या बताऊँ जहाँ-ए-ख़राब में
शब हाये हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में

ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में

क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में

मुझ तक कब उन की बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

जो मुन्किर-ए-वफ़ा हो फ़रेब उस पे क्या चले
क्यूँ बदगुमाँ हूँ दोस्त से दुश्मन के बाब में

मैं मुज़्तरिब हूँ वस्ल में ख़ौफ़-ए-रक़ीब से
डाला है तुम को वह्म ने किस पेच-ओ-ताब में

मै और हिज़्ज़-ए-वस्ल, ख़ुदासाज़ बात है
जाँ नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब में

है तेवरी चड़ी हुई अंदर नक़ाब के
है इक शिकन पड़ी हुई तर्फ़-ए-नक़ाब में

लाखों लगाव, इक चुराना निगाह का
लाखों बनाव, इक बिगड़ना इताब में

वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब में

वो सेह्र मुद्दा तल्बी में न काम आये
जिस सेह्र से सफ़िना रवाँ हो सराब में

"ग़ालिब' छूटी शराब, पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में

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दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है

दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द कि दवा क्या है

हम है मुश्ताक और वो बेज़ार
या ईलाही! ये माजरा क्या है

हम भी मुहँ मे जबान रखते हैं
काश पूछो कि मुद्दा क्या है

जब की तुझ बिन नही कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है

ये परी-चेहरा लोग कैसे है
गमज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अदा क्या है

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आह को चाहिए ऐक उम्र असर हो नें तक

आह को चाहिए ऐक उम्र असर हो नें तक
कोन जीता है तेरी ज़ूल्फ के असर हो ने तक

हम नें माना के तघ़ाफ़ुल ना करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे तुम को ख़बर होने तक

दाम ए हर मौज में है हलका-ए-साद काम निहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहार होने तक

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