साहिर लुधियानवी का जन्म 8 मार्च 1921 को पंजाब के लुधियाना में हुआ था।
उनका पैदाईशी नाम था अब्दुल हमी। पिता चौधरी फज़ल मुहम्मद और माता सरदार
बैगम। पिता जमींदार थे ओर निहायत आशिकमिजाजी भी थे। उनके बेगम के संख्या
कुल तेरह (13) थी।
मात्र 6 माह का उम्र में उनके माताजी ने अपने पतिके अय्याशीसे तंग आकर, घर छोड़
कर भाई के घर चली आई। तब से अब्दुल का परवरिश मामा के घर ही हुआ, जिनके
आर्थिक स्थिति ठिक न थी।
कॉलेज में वह शेरो-शायरी करने लगा और अब्दुल हमी से साहिर लुधियानी का नाम ले
लिया। कॉलेज में उनके साथ पढ़ती थी एक छात्रा अमृता, जो आगे चलकर अमृता
प्रीतम तथा पंजाब कोकीला कहलाई। अमृता साहिर और उनके शायरी पे फिदा थीं और
दोनो में प्यार हो गया। लेकिन यह बात जब अमृता के घर तक पहुँचा, तो उन्हे ये
अच्छा न लगा और 1943 में, अमृता के घरवालों के शिकायत पर साहिर को कॉलेज से
निकाल दिया गया।
एक जमींदार के बेटे होने के बावजूद निर्धन का जिन्दगी बिताना, प्यार का इस परिनती,
सब मिलाकर साहिर लुधियानबी को विद्रोही बना दिया और उनको बिद्रोही शायर के
नाम से भी पुकारा गया।
कॉलेज से निकाले जाने के बाद, उन्होने उर्दू पत्रिका “तखलिया” शुरू की। लेकिन उनकी
लेख समाज के बड़े लोगों को अच्छा न लगा। फिर वह “सवेरा” पत्रिका में लिखने लगे।
सरकार के विरुद्ध लिखने के वजाय उनके नाम गिरफ़्तारी का वारंट निकला। इस पत्रिका
से भी उन्हें अलग होना पड़ा। इसके बाद कुछ समय तक वह “अदबा-लतीफ” तथा
“शाहकार” पत्रिकाओं का सम्पादन किआ। मगर बिद्रोही होने कारण वहां से भी अलग
होना पड़ा। 1950 में वे मुम्बई आए और फिल्मों मे गीत लिखना शुरू किया, मगर अपने
शर्तों पर। उनका पहला फिल्म शायद “सजा” (1951) थी। संगीतकार सचिन देब बर्मन
के साथ उनका जोड़ी बहुत लोकप्रिय हुआ। लगातार 10 फिल्मों में दोनो एक साथ काम
किया। इस जोड़ी का सर्बश्रेष्ठ गीत शायद गुरु दत्त का “प्यासा” फिल्म का ही है।
फिल्म जगत में वही पहले गीतकार थे जिनका नाम में श्रोताओं नें रेडिओ के फरमायशी
गीतों के अनुष्ठानों मे गाना प्रसारित करने का अनुरोध करने लगे थे। इसके पहले सिर्फ
गायक और संगीतकार का नाम में ही गीतों का अनुरोध आया करता था। साहिर ने ही
पहला गीतकार थे जिन्हों ने रेडिओ में गीतकारों के “रॉयलटी” का व्यावस्था की।
अमृता के बाद उन्हों ने विवाह ना करने का फैसला किया। लेकिन लुधियाना के एक
वकील के बेटी उनके करीब आई। इनकी पिता, वकील साहब भी खुश न हुए और
साहिर को खत्म करने को सोच बैठे। लेकिन इनकी बेटी ने ज़हर पी ली। वह बच गई
लेकिन बाद में टी.बी. रोग से उनका देहांत हो गया। इसके बाद गायिका सुधा मलहोत्रा
साहिर के क़रीब आई। लेकिन साहिर रिश्ते को दोस्ती तक ही रखना उचित समझा।
इस प्रकार वे आजीवन अविवाहित रहे।
साहिर के माता के देहांत के बाद उनके पिताजी उनको अपनाने का पुरा कौशिश किया।
सारे जायदाद के वारिस साहिर को ही बनाया। लेकिन साहिर वापस ना गये क्योंकि वे
अपने मा से बहुत प्यार करते थे।
50 का दशक वामपन्थी विद्रोही विचारधारा का उत्थान का समय था। “ये कूंचे ये
नीलामार दिलकशी के”, “वो सुबह कभी तो आएगी”, “साथी हाथ बढ़ाना”, “क्या
मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे”, “साथी रे साथी रे साथी रे”, “ये महलों,
ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया” जैसे गीत उन्हे आम जनता के दिल में बसा दिया।
गुरुदत्त का “प्यासा” फिल्म मुम्बई की मिनर्वा टॉकीज़ में रिलीज हुआ था। इस फिल्म के
गीतकार साहिर ही थे। पर्दे पर जब “जिन्हे नाज है हिन्द पर, वो कहां है” गीत बजा, तो
हॉल के सारे दर्शक खड़े हो गये और तालियाँ बजाने लगे। दर्शकों की मांग पर यह गाना
तीन बार दिखाया गया। भारतीय सिनेमा का इतिहास में यह एक अनोखी घटना थी।
उनकी प्रकाशित काव्यग्रन्थों मे “तल्खियाँ”, “आओ कि कोई ख्वाब बुनें”, तथा “परछाइयाँ”
आदि मशहूर है।
कवि साहिर लुधियानवी के प्रति यहि हमारा श्रद्धांजली है।
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